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________________ ७०२ श्रीमद् राजचन्द्र [७५३ व्याख्यानसार ७६. क्षेत्रसमासमें क्षेत्रसंबंधी जो जो बातें हैं उन्हें अनुमानसे माननी चाहिये । उनमें अनुभव नहीं होता । परन्तु उन सबका कारणपूर्वक ही वर्णन किया जाता है। उसकी विश्वासपूर्वक श्रद्धा रखना चाहिये । मूल श्रद्धा में फेर हो जानेसे आगे चलकर समझनेमें ठेठतक भूल चली जाती है। जैसे गणितमें यदि पहिलेसे भूल हो गई हो तो वह भूल अन्ततक चली जाती है। ७७. ज्ञान पाँच प्रकारका है । वह ज्ञान यदि सम्यक्त्वके बिना, मिथ्यात्वसहित हो तो मति अज्ञान श्रुत अज्ञान और अवधि अज्ञान कहा जाता है । उन्हें मिलाकर ज्ञानके कुल आठ भेद होते हैं। ७८. मति श्रुत और अवधि यदि मिथ्यात्वसहित हों तो वे अज्ञान हैं, और सम्यक्त्वसहित हों तो ज्ञान हैं । इसके सिवाय उनमें कोई दूसरा भेद नहीं । ७९. जीव राग आदिपूर्वक जो कुछ भी प्रवृत्ति करता है, उसका नाम कर्म है । शुभ अथवा अशुभ अध्यवसायवाले परिणमनको कर्म कहते हैं; और शुद्ध अध्यवसायवाला परिणमन कर्म नहीं, किन्तु निर्जरा है। ८०. अमुक आचार्य ऐसा कहते हैं कि दिगम्बर आचार्योकी मान्यता है कि "जीवको मोक्ष नहीं होती, किन्तु मोक्ष समझमें आती है । वह इस तरह कि जीव शुद्धस्वरूपवाला है; इसलिये जब उसे बंध ही नहीं हुआ, तो फिर उसे मोक्ष कहाँसे हो सकती है ! परन्तु जीवने यह मान रक्खा है कि 'मैं बंधा हुआ हूँ।' यह मान्यता शुद्धस्वरूप समझ लेनेसे नहीं रहती-अर्थात् मोक्ष समझमें आ जाता है। परन्तु यह बात शुद्धनयकी अथवा निश्चयनयकी ही है। यदि पर्यायार्थिक नयवाले इस नयमें संलग्न रहकर आचरण करें तो उन्हें भटक भटक कर मरना है। ८१. ठाणांगसूत्रमें कहा गया है कि जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आसव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये पदार्थ सद्भाव हैं, अर्थात् उनका अस्तित्व मौजूद है उनकी कुछ कल्पना की गई हो यह बात नहीं। ८२. वेदान्त शुद्धनय-आभासी है । शुद्धनयाभास मतवाले निश्चयनयके सिवाय किसी दूसरे नयको व्यवहारनयको-नहीं मानते । जिनदर्शन अनेकान्तिक है—स्याद्वादी है। ८३. कोई नवतत्वोंकी, कोई षद्रव्यों की, कोई षट्पदोंकी और कोई दो राशिकी बात कहता है, परन्तु वह सब जीव अजीव इन दो राशिमें--दो तत्त्वोंमें-दो द्रव्योंमें ही गर्मित हो जाता है। ८४. निगोदमें अनन्त जीव रहते हैं इस बातमें, तथा कंदमूलमें सुईकी नोक जितने सूक्ष्म भागमें अनंत जीव रहते हैं इस बातमें, शंका नहीं करना चाहिये । ज्ञानीने जैसा स्वरूप देखा वैसा ही कहा है। यह जीव, जो स्थूल देहके प्रमाण होकर रहता है, और जिसे अभी भी अपना निजका स्वरूप समझमें नहीं आया, उसे ऐसी सूक्ष्म बातें समझमें न आवे तो यह सच है । परन्तु उसमें शंका करनेका कोई कारण नहीं है । इस बातको इस तरह समझना चाहिये: चौमासेके समयमें किसी गाँवके बाह्य भागमें जो बहुतसी हरियाली देखने में आती है, उस थोदीसी हरियालीमें भी जब अनंत जीव होते हैं, तो यदि इस तरहके अनेक गाँवोंका विचार करें तो जीवोंकी संख्याके प्रमाणका अनुभव न होनेपर भी, उसका बुद्धिबलसे विचार करनेसे उसका अनंतफ्ना
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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