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________________ पत्र ७४३,७४४,७४५,७४६ ] विविध पत्र आदि संग्रह-३१वाँ वर्ष तथा सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके बिना जन्म आदि दुःखकी आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो सकती। ऐसे महात्मा पुरुषका योग मिलना तो दुर्लभ ही है, इसमें संशय नहीं; परन्तु आत्मार्थी जीवोंका भी योग मिलना कठिन है, तो भी कचित् कचित् वर्तमानमें वह योग मिल सकता है। सत्समागम और सत्शास्त्रका परिचय करना चायेि।। ७४३ . बम्बई, मंगसिर सुदी ५ रवि. १९५४ 30 १. क्षयोपशम, उपशम, क्षायिक, पारिणामिक, औदयिक और सान्निपातिक इन छह भावोंको लक्षमें रखकर, आत्माको उन भावोंसे अनुप्रेक्षण करके देखनेसे सद्विचारमें विशेष स्थिति होगी। . २. ज्ञान दर्शन और चारित्र जो आत्मस्वभावरूप हैं, उन्हें समझनेके लिये उपरोक्त भाव विशेष अवलंबनके कारण हैं। ७४४ बम्बई, मंगसिर सुदी ५ रवि. १९५४ खेद न करते हुए, हिम्मत रखकर, ज्ञानीके मार्गसे चलनेसे मोक्ष-नगरी सुलभ ही है। जिस समय विषय कषाय आदि विशेष विकार उत्पन्न करके निवृत्त हो जॉय, उस समय विचारवानको अपनी निर्यिता देखकर बहुत ही खेद होता है, और वह अपनी बारम्बार निंदा करता है। वह फिर फिरसे अपनेको तिरस्कारकी वृत्तिसे देखकर, फिरसे महान् पुरुषोंके चरित्र और वाक्योंका अवलंबन ग्रहण कर, आत्मामें शौर्य उत्पन्न कर, उन विषय आदिके विरुद्ध अत्यन्त हठ करके, उन्हें हटा देता है; तबतक वह हिम्मत हारकर नहीं बैठता, तथा वह केवल ही खेद करके भी नहीं रुक जाता। आत्मार्थी जीवोंने इसी वृत्तिके अवलंबनको ग्रहण किया है, और अंतमें उन्होंने इसीसे जय प्राप्त की है। - इस बातको सब मुमुक्षुओंको मुखमार्गसे हृदयमें स्थिर करना चाहिये । ७४५ बम्बई, मंगसिर सुदी ५ रवि. १९५४ (१) कौनसे गुणोंके अंगमें आनेसे यथार्थरूपसे मार्गानुसारीपना कहा जा सकता है ! (२) कौनसे गुणोंके अंगमें आनेसे यथार्थरूपसे सम्यग्दृष्टिपना कहा जा सकता है ! (३) कौनसे गुणोंके अंगमें आनेसे श्रुतज्ञान केवलज्ञान हो सकता है ? ..(४) तथा कौनसी दशा होनेसे केवलज्ञान यथार्थरूपसे होता है अथवा कहा जा सकता है ! ये प्रश्न सद्विचारवानको हितकारी हैं। . ७४६ बम्बई, पौष सुदी ३ रवि. १९५१ ......."ने क्षमा माँगकर लिखा है कि सहजभावसे ही व्यावहारिक बातका लिखना हुआ है, उस संबंधमें आप खेद न करें । सो यहाँ वह खेद नहीं है । परन्तु यदि वह बात तुम्हारी दृष्टिमें ७
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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