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________________ पत्र ७१७,७१८,७१९] विविध पत्र आदि संग्रह-३०याँ वर्ष वह योग कचित् ही मिलता है । सत्पुरुष विरले ही विचरते हैं । उस समागमका अपूर्व लाभ मानकर जीवको मोक्षमार्गकी प्रतीति कर, उस मार्गका निरन्तर आराधन करना योग्य है। जब उस समागमका योग न हो तब आरंभ-परिग्रहकी ओरसे वृत्तिको हटाना चाहिये, और सत्शास्त्रका विशेषरूपसे परिचय रखना चाहिये । यदि व्यावहारिक कार्योंकी प्रवृत्ति करनी पड़ती हो तो भी जो जीव उसमेंसे वृत्तिको मंद करनेकी इच्छा करता है, वह जीव उसे मंद कर सकता है। और वह सत्शास्त्रके परिचयके लिये अधिक अवकाश प्राप्त कर सकता है। आरंभ-परिग्रहके ऊपरसे जिनकी वृत्ति खिन्न हो गई है, अर्थात् उसे असार समझकर जो जीव उससे पीछे हट गये हैं, उन जीवोंको सत्पुरुषोंका समागम और सत्शास्त्रका श्रवण विशेषरूपसे हितकारी होता है। तथा जिस जीवकी आरंभ-परिग्रहके ऊपर विशेष वृत्ति रहती हो, उस जीवमें सत्पुरुषके वचनोंका और सत्शास्त्रका परिणमन होना कठिन है। आरंभ-परिग्रहके ऊपरसे वृत्तिको कम करना और सत्शास्त्रके परिचयमें रुचि करना प्रथम तो कठिन मालूम होता है, क्योंकि जीवका अनादि-प्रकृतिभाव उससे भिन्न ही है, तो भी जिसने वैसा करनेका निश्चय कर लिया है, वह उसे करनेमें समर्थ हुआ है । इसलिये विशेष उत्साह रखकर उस प्रवृत्तिको करना चाहिये। सब मुमुक्षुओंको इस बातका निश्चय और नित्य नियम करना योग्य है । प्रमाद और अनियमितताको दूर करना चाहिये । ७१८ सच्चे ज्ञानके बिना और सच्चे चारित्रके बिना जीवका कल्याण नहीं होता, इसमें सन्देह नहीं है। सत्पुरुषके वचनका श्रवण, उसकी प्रतीति, और उसकी आज्ञासे चलनेवाले जीव चारित्रको प्राप्त करते हैं, यह निस्सन्देह अनुभव होता है। यहाँसे योगवासिष्ठ पुस्तक भेजी है, उसका पाँच-सात बार फिर फिरसे वाचन और बारम्बार विचार करना योग्य है। ७१९ ई, आषाढ़ वदी १ गुरु. १९५३ (१) शुभेच्छासे लगाकर शैलेसीकरणतक जिस ज्ञानीको सब क्रियायें मान्य हैं, उस ज्ञानीके वचन त्याग-वैराग्यका निषेध नहीं करते । इतना ही नहीं, किन्तु त्याग वैराग्यका साधनभूत जो पहिले त्याग-वैराग्य आता है, ज्ञानी उसका भी निषेध नहीं करते । (२) कोई जड़-क्रिया में प्रवृत्ति करके ज्ञानीके मार्गसे विमुख रहता हो, अथवा बुद्धिकी मूढ़ताके कारण उच्चदशाको प्राप्त करते हुए रुक जाता हो, अथवा जिसने असत् समागमसे मति-ज्यामोह प्राप्त करके अन्यथा त्याग-वैराग्यको ही सच्चा त्याग-वैराग्य मान लिया हो, तो यदि उसके निषेध करनेके लिये ज्ञानी योग्य वचनसे करुणा बुद्धिसे उसका कचित् निषेध करता हो, तो व्यामोहयुक्त न होकर उसका सदहेतु समझकर, यथार्थ त्याग-वैराग्यकी अंतर तथा बाह्य क्रिया प्रवृत्ति करना ही उचित है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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