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________________ ६७६ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ७०९,७१०,७११,७१२ ७०९ ववाणीआ, चैत्र वदी ५, १९५३ छहकायके स्वरूपकी भी सत्पुरुषकी दृष्टिसे प्रतीति करनेसे और विचारनेसे ज्ञान ही होता है। यह जीव किस दिशासे आया है, इस वाक्यसे शास्त्रपरिज्ञा-अध्ययनका आरंभ किया है । सद्गुरुके मुखसे उस आरंभ-वाक्यके आशयको समझनेसे समस्त द्वादशांगीका रहस्य समझना योग्य है। __ हालमें तो जो आचारांग आदिका बाँचन करो, उसका अधिक अनुप्रेक्षण करना । वह बहुतसे उपदेश-पत्रोंके ऊपरसे सहजमें ही समझमें आ सकेगा । सब मुमुक्षुओंको प्रणाम पहुँचे । ७१० सायला, वैशाख सुदी १५, १९५३ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये कर्मबंधके पाँच कारण हैं। किसी स्थलपर प्रमादको छोड़कर बाकीके चार ही कारण बतायें हों, तो वहाँ प्रमादका अंतर्भाव मिथ्यात्व अविरति और कषायमें ही किया गया है। . शास्त्रकी परिभाषानुसार प्रदेशबंधका अर्थ निग्नरूपसे है:-परमाणु सामान्यरूपसे एक प्रदेशअवगाही है । उस एक परमाणुके ग्रहण करनेको एक प्रदेश कहा जाता है । जीव कर्म-बंधसे अनंत परमाणुओंको ग्रहण करता है। वे परमाणु यदि फैले हों तो वे अनंतप्रदेशी हो सकते हैं, इस कारण अनंत प्रदेशोंका बंध कहा जाता है । उसमें भी मंद अनंत आदिसे भेद आता है; अर्थात् जहाँ अल्प प्रदेशबंध कहा हो वहाँ परमाणु तो अनंत समझने चाहिये, परन्तु उस अनंतकी सघनताको अल्प समझना चाहिये । तथा यदि उससे विशेष अधिक विशेष लिखा हो तो अनंतताको सघन समझनी चाहिये। जरा भी व्याकुल न होते हुए आदिसे अंततक कर्मग्रंथका बाँचना विचार करना योग्य है। ७११ ईडर, वैशाख वदी १२ शुक्र. १९५३. तथारूप ( यथार्थ ) आप्तका-मोक्षमार्गके लिये जिसके विश्वासपूर्वक प्रवृत्ति की जा सके ऐसे पुरुषका-जीवको समागम होनेमें कोई पुण्यका हेतु ही समझते हैं। तथा उसकी पहिचान होनेमें भी महान् पुण्य ही समझते हैं; और उसकी आज्ञा-भक्तिसे आचरण करनेमें तो महान् महान् पुण्य समझते हैं ऐसे ज्ञानीके जो वचन हैं वे सच्चे हैं, यह प्रत्यक्ष अनुभवमें आने जैसी बात है। यद्यपि तथारूप आप्तपुरुषके अभाव जैसा यह काल चल रहा है, तो भी आत्मार्थी जीवको उस समागमकी इच्छा करते हुए उसके अभावमें भी अवश्य ही विशुद्धिस्थानकके अभ्यासका लक्ष करना चाहिये । ७१२ ईडर, वैशाख वदी १२. शुक्र. १९५३ ___सर्वथा निराशा हो जानेसे जीवको सत्समागमका प्राप्त हुआ लाभ भी शिथिल हो जाता है। सत्समागके अभावका खेद रखते हुए भी जो सत्समागम हुआ है, यह परम पुण्यका योग मिला है.। इसलिये सर्वसंग त्यागका योग बननेतक जबतक गृहस्थाषासमें रहना हो तबतक उस. प्रतिको नीतिके
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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