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________________ ६५९ ७०. पंचास्तिकाय ] विविध पत्र मादि संग्रह-३०याँ वर्ष अपने स्वाभाविक भावोंके कारण आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदशी होती है, और अपने कर्मोंसे मुक्त होनेसे वह अनंत सुखको पाती है ॥२९॥ बल, इन्द्रिय, आयु और श्वासोच्वास इन चार प्राणोंसे जो भूतकालमें जीवित था, वर्तमानकालमें जीवित है, और भविष्यकालमें जीवित रहेगा, वह जीव है ॥ ३० ॥ अनंत अगुरुलघु गुणोंसे निरन्तर परिणमनशील अनंत जीव हैं। वे जीव असंख्यात. प्रदेशप्रमाण हैं। उनमें कितने ही जीवोंने लोक-प्रमाण अवगाहनाको प्राप्त किया है ॥३१॥ कितने ही जीवोंने उस अवगाहनाको प्राप्त नहीं किया । मिध्यादर्शन कषाय और योगसहित अनंत संसारी जीव हैं। उनसे रहित अनंत सिद्धजीव हैं ॥ ३२॥ जिस प्रकार पद्मराग मणिको दूधमें डाल देनेसे वह दूधके परिणामकी तरह भासत होती है, उसी तरह देहमें स्थित आत्मा. मात्र देह-प्रमाण ही प्रकाशक है, अर्थात् आत्मा देह-व्यापक है ॥३३॥ जिस तरह एक कायामें सर्व अवस्थाओंमें वहीका वही जीव रहता है, उसी तरह सर्वत्र संसारअवस्थाओंमें भी वहीका वही जीव रहता है । अध्यवसायविशेषसे ही कर्मरूपी रजोमलसे वह जीव मलिन होता है ॥ ३४॥ .. जिनके प्राण-धारण करना बाकी नहीं रहा है-जिनके उसका सर्वथा अभाव हो गया हैवे देहसे भिन्न और वचनसे अगोचर सिद्ध जीव हैं ॥ ३५॥ वास्तवमें देखा जाय तो सिद्धपद उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वह किसी दूसरे पदार्थस उत्पन्न होनेवाला कार्य नहीं है। इसी तरह वह किसीके प्रति कारणभूत भी नहीं है, क्योंकि उसकी अन्य किसी संबंधसे प्रवृत्ति नहीं होती ॥ ३६॥ यदि मोक्षमें जीवका अस्तित्व ही न हो तो फिर शाश्वत, अशाश्वत, भव्य, अभव्य, शून्य, अशून्य, विज्ञान और अविज्ञान ये भाव ही किसके हों ॥ ३७॥ . कोई जीव कर्मके फलका वेदन करते हैं। कोई जीव कर्म-संबंधके कर्तृत्वका वेदन करते हैं; और कोई जीव मात्र शुद्ध ज्ञानके ही स्वभावका वेदन करते हैं इस तरह वेदकभावसे जीवोंके तीन भेद हैं ॥ ३८॥ __ स्थावरकायिक जीव अपने अपने किये हुए कर्मोके फलका वेदन करते हैं । त्रस जीव कर्मबंधचेतनाका वेदन करते हैं; और प्राणोंसे रहित अतीन्द्रिय जीव शुद्धज्ञान चेतनाका वेदन करते हैं ॥३९॥ ज्ञान और दर्शनके भेदसे उपयोग दो प्रकारका है। उसे जीवसे सर्व कालमें अभिन्न समझना चाहिये ॥ ४०॥ .. .. . मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव, और केवलके भेदसे ज्ञानके पाँच भेद हैं । कुमति, कुश्रुत और विभंग ये अज्ञानके तीन भेद हैं । ये सब ज्ञानोपयोगके भेद हैं ॥ ११ ॥ ... चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और अविनाशी अनंत केवलदर्शन ये दर्शनोपयोगके चार भेद हैं ॥ १२॥ .... आत्मा कुछ, बान गुणके संबंधसे बानी है, यह बात नहीं है । परमार्थसे तो दोनोंकी अभिन्नता ही है॥४३॥.............. ... ... .............. . .
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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