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________________ ६४० भीमद् राजचन्द्र १६९२ आनन्दघन चौबीसी-विवेचन *(३) • प्रथम स्तवनमें भगवानमें वृत्तिके लीन होनेरूप हर्षको बताया है, परन्तु वह वृत्ति अखंड और पूर्णरूपसे लीन हो तो ही आनंदघन-पदकी प्राप्ति हो सकती है। इससे उस वृत्तिकी पूर्णताकी इच्छा करते हुए भी आनंदघनजी दूसरे तीर्थंकर श्रीअजितनाथका स्तवन करते हैं। जो पूर्णताकी इच्छा है, उसके प्राप्त होनेमें जो जो विघ्न समझे हैं, उन्हें आनंदघनजी भगवान्के दूसरे स्तवनमें संक्षेपसे निवेदन करते हैं; और अपने पुरुषत्वको मंद देखकर खेदखिन्न होते हैं इस तरह वे ऐसी भावनाका चितवन करते हैं जिससे पुरुषत्व जाग्रत रहे । हे सखि ! दूसरे तीर्थकर अजितनाथ भगवान्ने जो पूर्ण लीनताके मार्गका प्रदर्शन किया हैजो सम्यक् चारित्ररूप मार्ग प्रकाशित किया है-उसे जब मैं देखती हूँ तो वह मार्ग अजित है-मेरे समान निर्बल वृत्तिके मुमुक्षुसे 'अजेय है । तथा भगवान्का जो अजित नाम है वह सत्य ही है, क्योंकि जो बड़े बड़े पराक्रमी पुरुष कहे जाते हैं, उनके द्वारा भी जिस गुणोंके धामरूप पंथका जय नहीं हुआ, उसका भगवान्ने जय किया है । इसलिये भगवान्का अजित नाम सार्थक ही है, और अनंत गुणोंके धामरूप उस मार्गके जीतनेसे भगवान्का गुणोंका धाम कहा जाना सिद्ध है । हे सखि ! परन्तु मेरा नाम जो पुरुष कहा जाता है वह सत्य नहीं | तथा भगवान्का नाम तो अजित है; जिस तरह यह नाम तद्रूप गुणोंके कारण है, उसी तरह मेरा नाम जो पुरुष है वह तद्रुप गुणोंके कारण नहीं। क्योंकि पुरुष तो उसे कहा जाता है जो पुरुषार्थसे सहित हो-स्वपराक्रमसे सहित हो; परन्तु मैं तो वैसा हूँ नहीं । इसलिये मैं भगवान्से कहता हूँ कि हे भगवन् ! तुम्हारा नाम जो अजित है वह यथार्थ है, और मेरा नाम जो पुरुष है वह मिथ्या है । क्योंकि राग, द्वेष, अज्ञान, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि दोषोंका तुमने जय किया है इस कारण तुम अजित कहे जाने योग्य हो; परन्तु उन्हीं दोषोंने तो मुझे जीत लिया है, इसलिये मेरा नाम पुरुष कैसे कहा जा सकता है । ॥१॥ हे सखि ! उस मार्गको पानेके लिये दिव्य नेत्रोंकी आवश्यकता है। चर्मनेत्रोंसे देखते हुए तो समस्त संसार भूला ही हुआ है। उस परम तत्वका विचार होनेके लिये जिन दिव्य नेत्रोंकी आवश्यकता है, उन दिव्य नेत्रोंका निश्चयसे वर्तमानकालमें वियोग हो गया है। हे सखि ! उस अजितभगवान्का अजित होनेके लिये ग्रहण किया हुआ मार्ग कुछ इन चर्मचक्षुओंसे दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि वह मार्ग दिव्य है, और उसका अंतरात्मदृष्टिसे ही अवलोकन किया जा सकता है। जैसे एक गाँवसे दूसरे गाँवमें जानेके लिये पृथिवीपर सड़क वगैरह मार्ग होते हैं, उस तरह यह बाह्य मार्ग नहीं है, अथवा वह चर्मचक्षुसे देखनेपर दिखाई पड़नेवाला मार्ग नहीं है, कुछ चर्मचक्षुसे वह अतीन्द्रिय मार्ग दिखाई नहीं देता ॥२॥ अपूर्ण *आनन्दषनजीकृत अजितनाथ स्तवनके दो पद्य निम्ररूपसे है: पंयो निहाळुरे वीजा जिन तणो रे, अजित अजित गुणधाम । जे ते जीत्या रे तेणे हुँ जीतियो रे पुरुष कित्यु मुज नाम ॥ पंथगे० ॥१॥ चरम नयण करि मारग जेवाता रे, भूल्यो सयल संसार । जिन नयणे करि मारग जोविये रे, नयण ते दिव्य विचार ॥ पंथहो ॥॥ -अनुवादक
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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