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________________ ६३० श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ६८५,६८६,६८७ (२) श्री."तथा श्री.""आत्मसिद्धिशास्त्रको विशेषरूपसे मनन करें । तथा अन्य मुनियोंको भी प्रश्नव्याकरण आदि सूत्रोंको सत्पुरुषके लक्षसे सुनाया जाय तो सुनावें । ६८५ ववाणीआ, माघ वदी १२, १९५३ + ते माटे उभा कर जोड़ी, जिनवर आगळ कहिये रे। . समय चरण सेवा शुद्ध देजो, जेम आनन्दघन लहिये रे॥ (२) कर्मग्रन्थ शास्त्रको हालमें आदिसे अन्ततक बाँचनेका श्रवण करनेका और अनुप्रेक्षा करनेका परिचय रख सको तो रखना । हालमें उसे बाँचनेमें सुनने में नित्यप्रति दोसे चार घड़ी नियमपूर्वक व्यतीत करना योग्य है। ६८६ ववाणीआ, फाल्गुन सुदी २, १९५३ (१) एकान्त निश्चनयसे मति आदि चार ज्ञान, सम्पूर्ण शुद्ध ज्ञानकी अपेक्षासे विकल्पज्ञान कहे जा सकते हैं, परन्तु ये ज्ञान सम्पूर्ण शुद्ध ज्ञान अर्थात् निर्विकल्पज्ञान उत्पन्न होनेके साधन हैं। उसमें भी श्रुतज्ञान तो मुख्य साधन है, उस ज्ञानका केवलज्ञान उत्पन्न होनेमें अन्ततक अवलंबन रहता है। कोई जीव यदि इसका पहिलेसे ही त्याग कर दे तो वह केवलज्ञान प्राप्त नहीं करता । केवलज्ञानतककी दशा प्राप्त करनेका हेतु श्रुतज्ञानसे ही होता है। . (२) कर्मबंधकी विचित्रता सबको सम्यक् (अच्छी तरह ) समझमें आजाय, ऐसा नहीं होता। ६८७ * त्याग वैराग्य न चित्तमा, थाय न तेने ज्ञान । ___ अटके त्याग वैराग्यमां, तो भूले निजभान ॥ x जहां कल्पना जल्पना, हां मानु दुख छाई । मिटे कल्पना जल्पना, तब वस्तू तिन पाई ॥ पढे पार कहां पामवो, मिटे न मनकी आश । ज्यों कोल्हुके बैलको, घर ही कोश हजार ॥ 'मोहनीय'का स्वरूप इस जीवको बारम्बार अत्यन्त विचारने योग्य है। उस मोहनीयने महा मुनीश्वरोंको भी पलभरमें अपने पाशमें फंसाकर ऋद्धि-सिद्धिसे अत्यंत विमुक्त कर दिया है; शाश्वत सुखको छीनकर उन्हें क्षणभंगुरतामें ललचाकर भटकाया है ! इसलिये निर्विकल्प स्थिति लाकर, आत्मस्वभावमें रमण करना और केवल द्रष्टारूपसे रहना, यह ज्ञानियोंका जगह जगह उपदेश है । उस उपदेशके यथार्थ प्राप्त होनेपर इस जीवका कल्याण हो सकता है । जिज्ञासामें रहो यह योग्य है। __+ इस कारण मैं हाय जोरकर खदा रहकर जिनमगवान्के आगे प्रार्थना करता हूँ कि मुझे शास्त्रानुसार चारित्रकी शुद्ध सेवा प्रदान करो, जिससे मैं आनन्दघनको प्राप्त करूँ। . : *भात्मसिद्धि । xअंक ९१पृ. १८९. -अनुवादक.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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