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श्रीमद् राजचन्द्र
१६६३, ६६४, ६६५
४. श्री......."द्वारा आत्मसिद्धिशास्त्रका आगे चलकर अवगाहन करना विशेष हितकारी जानकर, उसे हालमें मात्र श्री......."को ही अवगाहन करनेके लिये लिखा है। तो भी यदि श्री......."की हालमें विशेष आकांक्षा रहती हो तो उन्हें भी प्रत्यक्ष सत्पुरुषके समान मेरा किसीने भी परम उपकार नहीं किया, ऐसा अखंड निश्चय आत्मामें लाकर, और ' इस देहके भविष्य जीवनमें भी यदि मैं उस अखंड निश्चयको छोड़ दूं तो मैंने आत्मार्थ ही त्याग दिया, और सच्चे उपकारीके उपकारके विस्मरण करनेका दोष किया, ऐसा ही मानूंगा; और नित्य सत्पुरुषकी आज्ञामें रहने में ही आत्माका कल्याण है '—इस तरह भिन्नभावसे रहित, लोकसंबंधी अन्य सब प्रकारकी कल्पना छोड़कर, निश्चय लाकर, श्री......"मुनिके साथमें इस ग्रंथके अवगाहन करनेमें हालमें भी बाधा नहीं है। उससे बहुतसी शंकाओंका समाधान हो सकेगा।
सत्पुरुषकी आज्ञामें चलनेका जिसका दृढ़ निश्चय रहता है, और जो उस निश्चयकी आराधना करता है, उसे ही ज्ञान सम्यक् प्रकारसे फलीभूत होता है—यह बात आत्मार्थी जीवको अवश्य लक्षमें रखना योग्य है । हमने जो यह वचन लिखा है, उसके सर्व ज्ञानी-पुरुष साक्षी हैं।
जिस प्रकारसे दूसरे मुंनियोंको भी वैराग्य उपशम और विवेककी वृद्धि हो, उस उस प्रकारसे श्री......"तथा श्री......."को उन्हें यथाशक्ति सुनाना और आचरण कराना योग्य है। इसी तरह अन्य जीव भी आत्मार्थके सन्मुख हों, ज्ञानी-पुरुषकी आज्ञाके निश्चयको प्राप्त करें, विरक्त परिणामको प्राप्त करें, तथा रस आदिकी लुब्धता मंद करें, इत्यादि प्रकारसे एक आत्मार्थके लिये ही उपदेश करना योग्य है।
(३) अनंतबार देहके लिये आत्माको व्यतीत किया है। जो देह आत्मार्थके लिये व्यतीत की जायगी, उस देहको आत्म-विचार पाने योग्य समझकर सर्व देहार्थकी कल्पना छोड़कर एक मात्र आत्मार्थमें ही उसका उपयोग करना योग्य है, यह निश्चय मुमुक्षु जीवको अवश्य करना चाहिये । श्रीसहजात्मस्वरूप.
६६४ नडियाद, आसोज वदी १२ सोम. १९५२ शिरच्छत्र श्रीपिताजी!
बम्बईसे इस ओर आनेमें केवल एक निवृत्तिका ही हेतु है; कुछ शरीरकी बाधासे इस ओर आना नहीं हुआ है। आपकी कृपासे शरीर स्वस्थ है । बम्बईमें रोगके उपद्रवके कारण आपकी तथा रेवाशंकर भाईकी आज्ञा होनेसे इस ओर विशेष स्थिरता की है, और उस स्थिरतामें आत्माको विशेष निवृत्ति रहती है।
हालमें बम्बईमें रोगकी बहुत शांति हो गई है । सम्पूर्ण शांति हो जानेपर उस ओर जानेका विचार है, और वहाँ जानेके पश्चात् बहुत करके भाई मनसुखको आपकी तरफ थोड़े समयके लिये भेजनेकी इच्छा है, जिससे मेरी मातेश्वरीके मनको भी अच्छा लगेगा।
आपके प्रतापसे पैसा पैदा करनेका तो बहुत करके लोभ नहीं है, किन्तु आत्माके परम कल्याण करनेकी ही इच्छा है । मेरी मातेश्वरीको पायलागन पहुँचे । बालक रायचन्द्रका दण्डवत् ।
६६५ नबियाद, आसोज वदी १५, १९५२ जो ज्ञान महा निर्जराका हेतु होता है, वह ज्ञान अनधिकारी जीवके हाथमें जानेसे प्रायः उसे भहितकारी होकर फल देता है।