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________________ भीमद् राजचन्द्र .. [१६. जेम शुभाशुभ कर्मपद, नाण्यां सफळ प्रमाण । तेम निवृत्ति सफळता, माटे मोक्ष मुजाण ॥ ८९॥ जिस तरह तूने जीवको शुभ-अशुभ कर्म करनेके कारण जीवको कोका कर्ता, और कर्ता होनेसे उसे कर्मका भोक्ता समझा है, उसी तरह उसे न करनेसे अथवा उस कर्मकी निवृत्ति करनेसे उसकी निवृत्ति भी होना संभव है । इसलिये उस निवृत्तिकी भी सफलता है। अर्थात् जिस तरह वह शुभाशुभ कर्म निष्फल नहीं जाता, उसी तरह उसकी निवृत्ति भी निष्फल नहीं जा सकती। इसलिये हे विचक्षण ! तू यह विचार कर कि उस निवृत्तिरूप मोक्ष है। वीत्यो काळ अनंत ते, कर्म शुभाशुभ भाव । तेह शुभाशुभ छेदतां, उपजे मोक्ष स्वभाव ॥९॥ कर्मसहित जो अनंतकाल बीत गया-वह सब शुभाशुभ कर्मके प्रति जीवकी आसक्तिके कारण ही बीता है। परन्तु उसपर उदासीन होनेसे उस कर्मके फलका छेदन किया जा सकता है, और उससे मोक्ष-स्वभाव प्रगट हो सकता है। देहादि संयोगनो, आत्यंतिक वियोग । सिद्ध मोक्ष शाश्वतपदे, निज अनंत सुखभोग ॥ ९१ ॥ देह आदि संयोगका अनुक्रमसे वियोग तो सदा होता ही रहता है। परन्तु यदि उसका ऐसा वियोग किया जाय कि वह फिरसे ग्रहण न हो, तो सिद्धस्वरूप मोक्ष-स्वभाव प्रगट हो, और शाश्वत पदमें अनंत आत्मानन्द भोगनेको मिले। ६शंका-शिष्य उवाच:शिष्य कहता है कि मोक्षका उपाय नहीं है: होय कदापि मोक्षपद, नहीं अविरोष उपाय । कर्मों काळ अनंतना, शाथी छेद्यां जाय ॥ ९२ ॥ कदाचित् मोक्ष-पद हो भी परन्तु उसके प्राप्त होनेका कोई अविरोधी अर्थात् जिससे याथातथ्य प्रतीति हो, ऐसा कोई उपाय मालूम नहीं होता । क्योंकि अनंतकालके जो कर्म है वे अल्प आयुकी मनुष्य देहसे कैसे छेदन किये जा सकते हैं! अथवा मत दर्शन घणां, कहे उपाय अनेक । तेमा मत साचो कयो बने न एह विवेक ।। ९३॥ अथवा कदाचित् मनुष्य देहकी अल्प आयु वगैरहकी शंका छोड़ भी दें, तो भी संसारमें अनेक मत और दर्शन है, और वे मोक्षके अनेक उपाय कहते हैं। अर्थात् कोई कुछ कहता है और कोई कुछ कहता है, फिर उनमें कौनसा मत सच्चा है, यह विवेक होना कठिन है। कयी जातिमा मोल छे ? कया वेषमा मोत? एनो निश्चय ना पने, घणा भेद ए दोष ॥ ९४॥ ग्रामण आदि किस जातिमें मोक्ष है, अथवा किस वेषसे मोक्ष है, इसका निधन होना
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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