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________________ ६६.] मात्मसिद्धि उसी तरह यदि ईश्वर भी दूसरेको फल देने आदिरूप क्रिया प्रवृत्ति करे तो उसे भी परभाव आदिके कर्त्तापनेका प्रसंग आता है; और मुक्त जीवकी अपेक्षा उसकी न्यूनता ही ठहरती है-इससे तो उसका ईश्वरत्व ही उच्छेद करने जैसा हो जाता है। ___ तथा जीव और ईश्वरका स्वभाव-भेद माननेसे भी अनेक दोष आते हैं । क्योंक यदि दोनोंको ही चैतन्य-स्वभाव मानें तब तो दोनों ही समान धर्मके कर्ता हुए। फिर उसमें ईश्वर तो जगत् आदिकी रचना करे अथवा कर्मके फल देनेरूप कार्यको करे, और मुक्त गिना जाय; तथा जीव एक मात्र देह आदि सृष्टिकी ही रचना करे, और अपने कर्मोका फल पानेके लिये ईश्वरका आश्रय ले, तथा बंधनमें बद्ध समझा जाय-यह बात यथार्थ नहीं मालूम होती । यह विषमता किस तरह हो सकती है ! तथा जीवकी अपेक्षा यदि ईश्वरकी सामर्थ्य विशेष मानें, तो भी विरोध आता है। क्योंकि ईश्वरको यदि शुद्ध चैतन्यस्वरूप मानें तो फिर शुद्ध चैतन्य मुक्त जीवमें और उसमें कोई भेद ही न होना चाहिये और फिर ईश्वरद्वारा कर्मका फल देना आदि कार्य भी न होना चाहिये; अथवा मुक्त जीवसे भी वह कार्य होना चाहिये । और यदि ईश्वरको अशुद्ध चैतन्यस्वरूप मानें तो फिर वह भी संसारी जीवोंके ही समान ठहरेगा; फिर उसमें सर्वज्ञ आदि गुण कहाँसे हो सकते हैं ? अथवा यदि देहधारी सर्वज्ञकी तरह उसे 'देहधारी सर्वज्ञ ईश्वर' मानें तो भी सब कर्मोके फल देनेरूप जो विशेष स्वभाव है, वह ईश्वरमें कौनसे गुणके कारण माना जायगा ! तथा देह तो विनाशीक है, इस कारण ईश्वरकी देह भी नाश हो जायगी और वह मुक्त होनेपर कर्मका फल देनेवाला न रहेगा, इत्यादि अनेक प्रकारसे ईश्वरको कर्म-फलदाता कहनेमें दोष आते हैं, और ईश्वरको उस स्वरूपसे माननेसे उसका ईश्वरत्व ही उत्यापन करनेके समान होता है। ईश्वर सिद्ध यया विना, जगत्-नियम नहीं होय । पछी शुभाशुभ कर्मना, भोग्यस्थान नहीं कोय ॥ ८१॥ जब ऐसा फलदाता कोई ईश्वर सिद्ध नहीं होता, तो फिर जगत्का कोई नियम भी नहीं रहता, और शुभ अशुभ कर्मके भोगनेका स्थान भी कोई नहीं ठहरता-तो जीवको फिर कर्मका भोक्तृत्व भी कहाँ रहा! समाधान-सद्गुरु उवाच:- . . . सद्गुरु समाधान करते हैं कि जीव अपने किये हुए कर्मको भोगता है: भावकर्म निजकल्पना, माटे चेतनरूप। जीववीर्यनी स्फुरणा, ग्रहण करे जडधूप ॥ ८२॥ जीवको भाव-कर्म अपनी भ्रांतिसे ही है, इसलिये वह उसे चेतनरूप मान रहा है और उस भ्रांतिका अनुसरण करके ही जीवका वीर्य स्फुरित होता है, इस कारण वह जब द्रष्य-कर्मकी वर्गणा प्रहण करता है। ___आशंका:-कर्म तो जद है, तो वह क्या समझ सकता है कि इस जीवको मुझे इस तरह फल देना है, अथवा उस स्वरूपसे परिणमन करना है। इसलिये जीव कर्मका भोक्ता नहीं हो सकता। समाधान:-जीव अपने स्वरूपके अडानसे ही कर्मका कर्ता है। तथा जो अज्ञान हैं वह चेत
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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