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________________ 180 भीमद् राजपा . आत्मज्ञान समदर्शिता, विचरे उदयप्रयोग। ... अपूर्व वाणी परमश्रुत सदुरुलक्षण योग्य ॥१०॥ - आत्मज्ञानमें जिनकी स्थिति है, अर्थात परभावकी इच्छासे जो रहित हो गये हैं; तथा शत्रु, मित्र, हर्ष, शोक, नमस्कार, तिरस्कार आदि भावके प्रति जिन्हें समता रहती है; केवल पूर्वमें उत्पन्न हुए कमौके उदयके कारण ही जिनकी विचरण आदि क्रियायें हैं, जिनकी वाणी अज्ञानीसे प्रत्यक्ष भिन्न है। और जो षट्दर्शनके तात्पर्यको जानते हैं वे उत्तम सद्गुरु हैं। स्वरूपस्थित इच्छारहित विचरे पूर्वप्रयोग। अपूर्व वाणी परमश्रुत सद्गुरुलक्षण योग्य ॥ : आत्मस्वरूपमें जिसकी स्थिति है, विषय और मान पूजा आदिकी इच्छासे जो रहित है, और केवल पूर्वमें उत्पन्न हुए कर्मके उदयसे ही जो विचरता है, अपूर्व जिसकी वाणी है-अर्थात् जिसका उपदेश निज अनुभवसहित होनेके कारण अज्ञानीकी वाणीकी अपेक्षा भिन्न पड़ता है--और परमश्रुत अर्थात् षट्दर्शनका यथारूपसे जो जानकार है-वह योग्य सद्गुरु है। यहाँ 'स्वरूपस्थित' जो यह प्रथम पद कहा, उससे ज्ञान-दशा कही है। तथा जो 'इच्छारहितपना' कहा, उससे चारित्रदशा कही है। जो इच्छारहित होता है वह किस तरह विचर सकता है ! इस आशंकाकी यह कहकर निवृत्ति की है कि वह पूर्वप्रयोग अर्थात् पूर्वके बंधे हुए प्रारब्धसे विचरता है-विचरण आदिकी उसे कामना बाकी नहीं है । ' अपूर्व वाणी' कहनेसे वचनातिशयता कही है, क्योंकि उसके बिना मुमुक्षुका उपकार नहीं होता । 'परमश्रुत' कहनेसे उसे षट्दर्शनके अविरुद्ध दशाका जानकार कहा है, इससे श्रुतज्ञानकी विशेषता दिखाई है। .. आशंकाः–वर्तमानकालमें स्वरूपस्थित पुरुष नहीं होता इसलिये जो स्वरूपस्थित विशेषणयुक्त सद्गरु कहा है वह आजकल होना संभव नहीं। . समाधानः--वर्तमानकालमें कदाचित् ऐसा कहा हो ता उसका अर्थ यह हो सकता है कि 'कैवल-भूमिका के संबंधों ऐसी स्थिति असंभव है; परन्तु उससे ऐसा नहीं कहा जा सकता कि आत्मज्ञान ही नहीं होता, और जो आत्मज्ञान है वही स्वरूपस्थिति है। - आसंकाः-आत्मज्ञान हो तो वर्तमानकालमें भी मुक्ति होनी चाहिये, और जिनागममें तो इसका निषेध किया है। . . समाधान:-इस वचनको कदाचित् एकांतसे इसी तरह मान भी लें तो भी उससे एकावतारीपनेका निषेध नहीं होता, और एकावतारीपना आत्मज्ञानके बिना प्राप्त होता नहीं। . आशंका:-त्याग-वैराग्य आदिको उत्कृष्टतासे ही उसका एकावतारीपना कहा होगा। . . ... समाधानः-परमार्थ से उत्कृष्ट त्याग-वैराग्यके बिना एकावतारीपना होता ही नहीं, यह सिद्धांत है; और वर्तमानमें भी चौथे, पाँचवें और छो गुणस्थानका कुछ भी निषेध नहीं, और चौथे मुणस्थानसे ही आत्मज्ञान संभव है । पाँचवेंमें विशेष स्वरूपास्थिति होती है, छोमें बहुत अंशसे स्वरूपस्थिति होती
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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