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राजचन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय
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'दीनबंधुका अनुग्रह' आदि शब्दोका जगह जगह उल्लेख करते हैं; 'ईश्वरपर विश्वास रखनेको एक सुखदायक मार्ग' समझते है तथा हरिदर्शन' के लिये अत्यंत आतुरता प्रकट करते हैं। वे अपने आपको हरिके लिये समर्पण कर देते है, और यहाँतक लिख डालते हैं कि “जबतक ईश्वरेच्छा न होगी तबतक हमसे कुछ भी न हो सकेगा । एक तुच्छ तृणके दो टुकड़े करनेकी भी सत्ता हममें नहीं है।" ' इस दशाम ईश्वरभाक्तिको सर्वोपरिमार्ग बताते हुए राजचन्द्रजीने जो अपनी परम उल्लासयुक्त दशाका वर्णन किया है, उसे उन्हींके शब्दोंमें सुनिये:-" आज प्रभातसे निरंजनदेवका कोई अद्भुत अनुग्रह प्रकाशित हुआ है। आज बहुत दिनसे इच्छित पराभक्ति किसी अनुपमरूपसे उदित हुई है। श्रीभागवतमें एक कथा है कि गोपियाँ भगवान् वासुदेव (कृष्णचन्द्र) को दहीकी मटकी में रखकर बेचनेके लिए निकली थीं। वह प्रसंग आज बहुत याद आ रहा है। जहाँ अमृत प्रवाहित होता है वही सहस्रदल कमल है, और वही यह दहीकी मटकी है, और जो आदिपुरुष उसमें विराजमान हैं, वे ही यहाँ भगवान् वासुदेव हैं। सत्पुरुषकी चित्तवृत्तिरूपी गोपीको उसकी प्राति होनेपर वह गोपी उल्लासमें आकर दूसरी किन्हीं मुमुक्षु आत्माओंसे कहती है कि 'कोई माधव लो हाँरे कोई माधव लो'-अर्थात् वह वृत्ति कहती है कि हमें आदिपुरुषकी प्राप्ति हो गई है, और बस यह एक ही प्राप्त करने योग्य है, दूसरा कुछ भी प्राप्त करनेके योग्य नहीं। इसलिये तुम इसे प्राप्त करो। उल्लासमें वह फिर फिर कहती जाती है कि तुम उस पुराणपुरुषको प्राप्त करो और यदि उस प्राप्तिकी इच्छा अचल प्रेमसे करते हो तो हम तुम्हें इस आदिपुरुषको दे दें। हम इसे मटकीमें रखकर बेचने निकली है, योग्य ग्राहक देखकर ही देती हैं। कोई ग्राहक बनो, अचल प्रेमसे कोई ग्राहक बनो, तो हम वासुदेवकी प्राप्ति करा दे।
मटकीमें रखकर बेचने निकलनेका गूढ आशय यह है कि हमें सहसदल कमलमे वासुदेव भगवान् मिल गये हैं। दहीका केवल नाम मात्र ही है। यदि समस्त सृष्टिको मथकर मक्खन निकाले तो केवल एक अमृतरूपी वासुदेव भगवान् ही निकलते हैं। इस कथाका असली सूक्ष्म स्वरूप यही है। किन्तु उसको स्थूल बनाकर व्यासजीने उसे इस रूपसे वर्णन किया है, और उसके द्वारा अपनी अद्भुत भक्तिका परिचय दिया है। इस कथाका और समस्त भागवतका अक्षर अक्षर केवल इस एकको ही प्राप्त करनेके उद्देशसे भरा पड़ा है; और वह (हमें) बहुत समय पहले समझमें आ गया है। आज बहुत ही ज्यादा स्मरणमें क्योंकि साक्षात अनभवकी प्राप्ति हई है, और इस कारण आजकी दशा परम अदभुत है। ऐसी दशासे जीव उन्मत्त हुए बिना न रहेगौ। तथा वासुदेव हरि जान बूझकर कुछ समयके लिये अन्तर्धान भी हो जानेवाले लक्षणों के धारक है, इसलिये हम असंगता चाहते हैं, और आपका सहवास भी असंगता ही है, इस कारण भी वह हमें विशेष प्रिय है।
यहाँ सत्संगकी कमी है, और विकट स्थानमें निवास है। हरि-इच्छापूर्वक ही घूमने फिरने११६-२४५-२४. २ पराभक्तिका वर्णन सुंदरदासजीने इस तरह किया है:भवण बिनु धुनि सुने नयनु बिनु रूप निहारे । रसना बिनु उबरे प्रशंसा बहु विस्तारै ।। नृत्य चरन बिनु करे हस्त बिनु ताल बजावे। अंग विना मिलि संग बहुत आनंद बढावे ॥ बिनु सीस नवे जहाँ सेव्यको सेवकमाव लिये रहे । मिलि परमातमसौं आतमा पराभक्ति सुंदर को ।।
-शानसमुद्र २-५१. ३ सुंदरदासजी इस दशाका वर्णन निम प्रकारसे किया है:
प्रेम लग्यो परमेश्वरसों तब, भूलि गयो सिगरो पर वारा। ग्यो उनमत्त फिरें जितही तित, नेक रही न शरीर संभारा। स्वास उसास उठे सब रोम, चले हग नीर अखंडित धारा । सुंदर कौन करे नवधा विधि छाकि पर्यो रस पी मतवारा || -ज्ञानसमुद्र २-३९.