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________________ [६४७ भीमद् राजचन्द्र वर्णाश्रम आदि-वर्णाश्रम आदिपूर्वक आचार-यह सदाचारके अंगभूतके समान है। विशेष पारमार्थिक हेतु न हो तो वर्णाश्रम आदिपूर्वक वर्तन करना ही योग्य है, ऐसा विचारसे सिद्ध है। यद्यपि वर्णाश्रम धर्म वर्तमानमें बहुत निर्बल स्थितिको प्राप्त हो गया है, तो भी हमें तो, जबतक हम उत्कृष्ट त्याग दशाको न प्राप्त करें और जबतक गृहाश्रममें वास हो, तबतक तो वैश्यरूप वर्णधर्मका अनुसरण करना ही योग्य है। क्योंकि उसमें अभक्ष आदि ग्रहण करनेका व्यवहार नहीं है। यहाँ ऐसी आशंका हो सकती है कि लहाणा लोग भी उस तरह आचरण करते हैं तो फिर उनके अन्न आहार आदिके ग्रहण करनेमें क्या हानि है !' तो इसके उत्तरमें इतना ही कह देना उचित होगा कि बिना कारण उस रिवाजको बदलना भी योग्य नहीं। क्योंकि उससे, बादमें, दूसरे समागमवासी अथवा किसी प्रसंग आदिमें अपने रीति-रिवाजका अनुकरण करनेवाले, यह समझने लगेंगे कि किसी भी वर्णके यहाँ भोजन करनेमें हानि नहीं। लुहाणाके घर अन्न आहार ग्रहण करनेसे वर्णधर्मकी हानि नहीं होती, परंतु मुसलमानोंके घर अन्न आहार ग्रहण करते हुए तो वर्णधर्मकी विशेष हानि होती है; और वह वर्णधर्मके लोप करनेके दोषके समान होता है । अपनी किसी लोकके उपकार आदि कारणसे वैसी प्रवृत्ति होती हो-यद्यपि रसलुब्धता बुद्धिसे वैसी प्रवृत्ति न होती हो तो भी अपना वह आचरण ऐसे निमित्तका हेतु हो जाता है कि दूसरे लोग उस हेतुके समझे बिना ही प्रायः उसका अनुकरण करते है, और अंतमें अभक्ष आदिके ग्रहण करनेमें प्रवृत्तिं करने लगते हैं। इसीलिये उस तरह आचरण न करना अर्थात् मुसलमान आदिका अन्न आहार आदि ग्रहण नहीं करना, यह उत्तम है। तुम्हारी वृत्तिकी तो बहुत कुछ प्रतीति है, परन्तु यदि किसीकी उससे उतरती हुई वृत्ति हो तो उसका अभक्ष आदि आहारके संयोगसे प्रायः उस मार्गमें चले जाना संभव है । इसलिये इस समागमसे जिस तरह दूर रहा जाय उस तरह विचार करना कर्तव्य है। दयाकी भावना विशेष रखनी हो तो जहाँ हिंसाके स्थानक हैं, तथा वैसे पदार्थ जहा ख़रीदे बेचे जाते हैं, वहाँ रहनेके अथवा जाने आनेके प्रसंगको न आने देना चाहिये, नहीं तो प्रायः जैसी चाहिये वैसी दयाकी भावना नहीं रहती । तथा अभक्षके ऊपर वृत्ति न जाने देनेके लिये और उस मार्गकी उन्नतिका अनुमोदन करनेके लिये, अभक्ष आदि ग्रहण करनेवालेका, आहार आदिके लिये परिचय न रखना चाहिये। ज्ञान-दृष्टिसे देखनेसे तो ज्ञाति आदि भेदकी विशेषता आदि मालूम नहीं होती, परन्तु भक्षाभक्षके भेदका तो वहाँ भी विचार करना चाहिये, और उसके लिये मुख्यरूपसे इस वृत्तिका रखना ही उत्तम है। बहुतसे कार्य ऐसे होते हैं कि उनमें कोई प्रत्यक्ष दोष नहीं होता, अथवा उनसे कोई अन्य दोष नहीं लगता, परन्तु उसके संबंधसे दूसरे दोषोंको आश्रय मिलता है, उसका भी विचारवानको लक्ष रखना उचित है । नैटालके लोगोंके उपकारके लिये कदाचित् तुम्हारी ऐसी प्रवृत्ति होती है, ऐसा भी निश्चय नहीं समझा जा सकता। यदि दूसरे किसी भी स्थलपर वैसा आचरण करते हुए बाधा मालूम हो, और आचरण करना न बने तोही वह हेतु माना जा सकता है। तथा उन लोगोंके उपकारके लिये वैसा आचरण करना चाहिये, ऐसा विचारनेमें भी कुछ कुछ तुम्हारी समझ-फेर होती होगी, ऐसा लगा करता है। तुम्हारी सद्वृत्तिकी कुछ प्रतीति है, इसलिये इस विषयमें अधिक लिखना योग्य नहीं जान परता। जिस तरह सदाचार और सद्विचारका आराधन हो, बैसा आचरण करना योग्य है ।। . . ....
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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