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५९८ श्रीमद् राजचन्द्र
[६४३ यदि सत्पुरुषके वचनरूपी टाँकीसे दरार पड़ जाय तो पानी चमक उठे । जीवका शल्य हजारों दिनके जातियोगके कारण दूर नहीं होता, परन्तु सत्संगका संयोग यदि एक महीनेतक भी हो तो वह दूर हो जाय, और जीव रास्तेसे चला जाय ।
बहुतसे लघुकर्मी संसारी जीवोंको पुत्रके ऊपर मोह करते हुए जितना खेद होता है उतना भी वर्तमानके बहुतसे साधुओंको शिष्यके ऊपर मोह करते हुए होता नहीं !
तृष्णावाला जीव सदा भिखारी; संतोषवाला जीव सदा सुखी ।
सच्चे देवकी, सच्चे गुरुकी, सच्चे धर्मकी पहिचान होना बहुत मुश्किल है । सच्चे गुरुकी पहिचान हो, उसका उपदेश हो, तो देव, सिद्ध, धर्म इन सबकी पहिचान हो जाय । सबका स्वरूप सद्गुरुमें समा जाता है। .
सच्चे देव अहंत, सच्चे गुरु निम्रन्थ, और सच्चे हरि राग-द्वेष जिसके दूर हो गये हैं । ग्रंथरहित अर्थात् गाँठरहित । मिथ्यात्व अंतर्ग्रन्थि है । परिग्रह बाह्य प्रन्थि है । मूलमें अभ्यंतर ग्रंथि छिन्न न हो तबतक धर्मका स्वरूप समझमें नहीं आता। जिसकी प्रन्थि नष्ट हो गई है, वैसा पुरुष मिले तो सचमुच काम हो जाय; और उसमें यदि सत्समागम रहे तो विशेष कल्याण हो । जिस मूल गाँठका शास्त्र में छेदन करना कहा है, उसे सब भूल गये हैं, और बाहरसे तपश्चर्या करते हैं । दुःखके सहन करनेसे भी मुक्ति होती नहीं, क्योंके दुःख वेदन करनेका कारण जो वैराग्य है, जीव उसे भूल गया है। दुःख अज्ञानका है।
____ अंदरसे छूटे तभी बाहरसे छूटता है, अंदरसे छूटे बिना बाहरसे छूटता नहीं । केवल बाहर बाहरसे छोड़ देनेसे काम नहीं होता । आत्म-साधनके बिना कल्याण होता नहीं ।
- बाह्य और अंतर जिसे दोनों साधन हैं, वह उत्कृष्ट पुरुष है, और इसलिये वह श्रेष्ठ है । जिस साधुके संगसे अंतर्गुण प्रगट हो उसका संग करना चाहिये । कलई और चाँदीके रुपये दोनों समान नहीं कहे जाते। कलईके ऊपर सिक्का लगा दो, फिर भी उसकी रुपयेकी कीमत नहीं होती; और चाँदी हो तो उसके ऊपर सिक्का न लगाओ तो भी उसकी कीमत कम नहीं हो जाती । उसी तरह यदि गृहस्थ अवस्थामें समकित हो, तो उसकी कीमत कम नहीं हो जाती। सब कहते हैं कि हमारे धर्मसे मोक्ष है। आत्मामें राग-द्वेषके नाश होनेपर ज्ञान प्रगट होता है। चाहे जहाँ बैठो और चाहे जिस स्थितिमें हो, मोक्ष हो सकती है। परन्तु राग-द्वेष नष्ट हो तभी तो । मिथ्यात्व और अहंकार नाश हुए बिना कोई राजपाट छोड़ दे, वृक्षकी तरह सूख जाय, फिर भी मोक्ष नहीं होती । मिथ्यात्व नाश होनके पश्चात् ही सब साधन सफल हैं । इस कारण सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ है। ..... संसारमें जिसे मोह है, स्त्री-पुत्रमें अपनापन हो रहा है, और कषायका जो भरा हुआ है, वह रात्रि-भोजन न करे तो भी क्या हुआ ! जब मिथ्यात्व चला जाय तभी उसका सत्फल होता है।
हालमें जैनधर्मके जितने साधु फिरते हैं, उन सभीको समकिती नहीं समझना; उन्हें दान देने में हानि नहीं, परन्तु वे हमारा कल्याण नहीं कर सकते । वेश कल्याण नहीं करता । जो साधु केवल बाह्य क्रियायें किया करता है, उसमें ज्ञान नहीं। ...: . ज्ञान तो वह है कि जिससे बाह्य वृत्तियाँ रुक जाती हैं-संसारपरसे सची प्रीति घट जाती है-जीव सबेको साचा समझने लगता है। जिससे आत्मामें गुण प्रगट हो वह शान । '