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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [६४३ इकडा करके कहलवाया कि आप सब लोग दरवाजेके बाहर आवें, क्योंकि राजाको तेलकी ज़रूरत है इसलिये आज भक्त-तेल निकालना है। तुम सब लोग बहुत दिनोंसे राजाके माल-मसाले खा रहे हो, तो आज राजाका इतना काम तुम्हें अवश्य करना चाहिये । जब भक्तोंने, घाणीमें डालकर तेल निकालनेकी बात सुनी तो सबके सब भाग गये और अदृश्य हो गये। उनमें एक सच्चा भक्त था, उसने विचार किया कि राजाका नमक खाया है तो उसकी नमकहरामी कैसे की जा सकती है ! राजाने परमार्थ समझकर अन्न दिया है, इसलिये राजा चाहे कुछ भी करे, उसे करने देना चाहिये । यह विचार कर घाणीके पास जाकर उसने कहा कि 'आपको भक्त-तेल निकालना हो तो निकालिये' । प्रधानने राजासे कहा-'देखिये, आप सब भक्तोंकी सेवा करते थे, परन्तु आपको सच्चे-झूठेकी परीक्षा न थी'। देखो, इस तरह, सच्चे जीव तो विरले ही होते हैं, और वैसे विरले सच्चे सद्गुरुकी भक्ति श्रेयस्कर है। सच्चे सद्गुरुकी भक्ति मन वचन और कायासे करनी चाहिये । एक बात जबतक समझमें न आवे तबतक दूसरी बात सुनना किस कामकी ! सुने हुएको भूलना नहीं। जैसे एक बार जो भोजन किया है, उसके पचे बिना दूसरा भोजन नहीं करना चाहिये । तप वगैरह करना कोई महाभारत बात नहीं, इसलिये तप करनेवालेको अहंकार करना नहीं चाहिये । तप यह छोटेमें छोटा हिस्सा है। भूखे मरना और उपवास करनेका नाम तप नहीं । भीतरसे शुद्ध अंतःकरण हो तो तप कहा जाता है; और तो मोक्षगति होती है। बाह्य तप शरीरसे होता है। तप छह प्रकारका है:-१ अंतर्वृत्ति होना, २ एक आसनसे कायाको बैठाना, ३ कम आहार करना, ४ नीरस आहार करना और वृत्तियोंका संकुचित करना, ५ संलीनता और ६ आहारका त्याग। तिथिके लिये उपवास नहीं करना, परन्तु आत्माके लिये उपवास करना चाहिये । बारह प्रकारका तप कहा है। उसमें आहार न करना, इस तपको जिह्वा इन्द्रियको वंश करनेका उपाय समझकर कहा है। जिला इन्द्रिय वश की तो यह समस्त इन्द्रियोंके वशमें होनेका निमित्त है। उपवास करो तो उसकी बात बाहर न करो, दूसरेकी निन्दा न करो, क्रोध न करो। यदि इस प्रकारके दोष कम हों तो महान् लाभ हो । तप आदि आत्माके लिये ही करने चाहिये-लोकके दिखानेके लिये नहीं । कषायके घटनेको तप कहा है। लौकिक दृष्टिको भूल जाना चाहिये । सब कोई सामायिक करते हैं, और कहते हैं कि जो ज्ञानी स्वीकार करे वह सत्य है। समकित होगा या नहीं, उसे भी यदि ज्ञानी स्वीकार करे तो सच्चा है । परन्तु ज्ञानी क्या स्वीकार करे ! अज्ञानीसे स्वीकार करने जैसा ही तुम्हारा सामायिक, व्रत और समकित है। अर्थात् वास्तविक सामायिक, व्रत और समकित तुम्हारेमें नहीं । मन वचन और काया व्यवहार-समतामें स्थिर रहें, यह समकित नहीं है। जैसे नींदमें स्थिर योग मालूम होता है, फिर भी वस्तुतः वह. स्थिर नहीं है, और इस कारण वह समता भी नहीं है। मन वचन और काया चौदह गुणस्थानतक होते हैं। मन तो कार्य किये बिना बैठता ही नहीं। केवलीके मनयोग चपल होता है, परन्तु आत्मा चपल नहीं होती । आत्मा चौथे गुणस्थानकमें चपल होती है, परन्तु सर्वथा नहीं। 'ज्ञान' अर्थात् आत्माको याथातथ्य जानना । 'दर्शन' अर्थात् आत्माकी याथातथ्य प्रतीति ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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