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५३४ श्रीमद् राजचन्द्र
[६३ किसीके ऊपर रोष करना नहीं, तथा किसीके ऊपर प्रसन्न होना नहीं । ऐसा करनेसे एक शिष्यको दो घड़ीमें केवलज्ञान प्रगट होनेका शास्त्रमें वर्णन आता है ।
जितना रोग होता है, उतनी ही उसकी दवा करनी पड़ती है। जीवको समझना हो तो सहज ही विचार प्रगट हो जाय, परन्तु मिथ्यात्वरूपी महान् रोग मौजूद है, इसलिये समझनेमें बहुत काल व्यतीत होना चाहिये । शास्त्रमें जो सोलह रोग कहे हैं, वे सब इस जीवको मौजूद हैं, ऐसा समझना चाहिये ।
जो साधन बताये हैं, वे सर्वथा सुलभ हैं। स्वच्छंदसे, अहंकारसे, लोक-लाजसे, कुलधर्मके रक्षणके लिये तपश्चर्या करनी नहीं-आत्मार्थके लिये ही करनी । तपश्चर्या बारह प्रकारकी कही है। आहार न लेना आदि ये बारह प्रकार हैं । सत्साधन करनेके लिये जो कुछ बताया हो उसे सत्पुरुषके आश्रयसे करना चाहिये । अपने आपसे प्रवृत्ति करना वही स्वच्छंद है, ऐसा कहा है। सद्गुरुकी आज्ञाके बिना श्वासोच्छ्वास क्रियाके बिना अन्य कुछ भी करना नहीं।
साधुको लघुशंका भी गुरुसे पूछकर ही करनी चाहिये, ऐसी ज्ञानी-पुरुषोंकी आज्ञा है।
स्वच्छंदाचारसे शिष्य बनाना हो तो साधु आज्ञा माँगता नहीं, अथवा उसकी कल्पना ही कर लेता है। परोपकार करनेमें मिथ्या कल्पना रहा करती हो, और वैसे ही अनेक विकल्पोंद्वारा जो स्वच्छंद छोड़े नहीं वह अज्ञानी, आत्माको विघ्न करता है । तथा वह इसी तरह सब बातोंका सेवन करता है, और परमार्थके रास्तेका उल्लंघन कर वाणी बोलता है । यही अपनी होशियारी है, और उसे ही स्वच्छंद कहा गया है।
बाह्य व्रतको अधिक लेनेसे मिथ्यात्वका नाश कर देंगे-ऐसा जीव विचार करे, तो यह संभव नहीं। क्योंकि जैसे एक भैंसा जो हजारों ज्वार-बाजरेके पूलेके पूले खा गया है, वह एक तिनकेसे डरता नहीं, उसी तरह मिथ्यात्वरूपी भैंसा, जो पूलेरूपी अनंतानुबंधी कषायसे अनंतों चारित्र खा गया है, वह तिनकेरूपी बाह्य व्रतसे कैसे डर सकता है। परन्तु जैसे भैसेको यदि किसी बंधनसे बाँध दें तो वह वशमें हो जाता है, वैसे ही मिथ्यात्वरूपी भैंसेको आत्माके बलरूपी बंधनसे बाँध देनेसे वह वश हो जाता है; अर्थात् जब आत्माका बल बढ़ता तो मिथ्यात्व घटता है ।
अनादिकालके अज्ञानके कारण जितना काल व्यतीत हुआ, उतना काल मोक्ष होनेके लिये चाहिये नहीं। कारण कि पुरुषार्थका बल कर्मोंकी. अपेक्षा अधिक है । कितने ही जीव दो घड़ामें कल्याण कर गये हैं ! सम्यग्दृष्टि किसी भी तरह हो आत्माको ऊँचे ले जाता है-अर्थात् सम्यक्त्व आनेपर जीवकी दृष्टि बदल जाती है।
मिथ्यादृष्टि, समकितीके अनुसार ही जप तप आदि करता है, ऐसा होनेपर भी मिथ्यादृष्टिके जप तप आदि मोक्षके कारणभूत होते नहीं, संसारके ही कारणभूत होते हैं । समकितीके ही जप तप आदि मोक्षके कारणभूत होते हैं। समकिती उन्हें दंभ रहित करता है, अपनी आत्माकी ही निन्दा करता है, और कर्म करनेके कारणोंसे पीछे हटता है । यह करनेसे उसके अहंकार आदि स्वाभाविकरूपसे ही घट जाते हैं । अज्ञानीके समस्त जप तप आदि अहंकारकी वृद्धि करते हैं, और संसारके हेतु होते हैं।
जैनशाखोंमें कहा है कि लब्धियाँ उत्पन्न होती हैं । जैन और वेददर्शन जन्मसे ही लड़ते आते हैं, परन्तु इस बातको तो दोनों ही जने कबूल करते हैं, इसलिये यह संभव है। जब आत्मा साक्षी देता है उसी समय आत्मामें उल्लास-परिणाम आता है।