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________________ ५२६ श्रीमद् राजचन्द्र [६४३ इतनेमें ही जहाँ शिथिलताके कारण मिले कि वृत्तियों यह कहकर ठग लेती हैं ' इसके त्याग करनेसे रोगके कारण उत्पन्न होंगे, इसलिये इस समय नहीं परन्तु फिर कभी त्याग करूँगी।' इस तरहसे अनादिकालसे जीव ठगाया जा रहा है । किसीका बीस वर्षका पुत्र मर गया हो तो उस समय तो उस जीवको ऐसी कड़वाहट लगती है कि यह संसार मिथ्या है। किन्तु होता क्या है कि दूसरे ही दिन इस विचारको बाह्य वृत्ति यह कहकर विस्मरण करा देती है कि इसका पुत्र कल बड़ा हो जायगा; ऐसा तो होता ही आता है किया क्या जाय !' परन्तु यह नहीं होता जिस तरह वह पुत्र मर गया है उस तरह मैं भी मर जाऊँगा । इसलिये समझकर वैराग्य लेकर चला. जाऊँ तो अच्छा है-ऐसी वृत्ति नहीं होती । वहाँ वृत्ति ठग लेती है। जीव ऐसा मान बैठता है कि मैं पंडित हूँ, शास्त्रका वेत्ता हूँ, होशियार हूँ, गुणवान हूँ, लोग मुझे गुणवान कहते हैं', परन्तु जब उसे तुच्छ पदार्थका संयोग होता है, उस समय तुरत ही उसकी वृत्ति उस ओर खिंच जाती है। ऐसे जीवको ज्ञानी कहते हैं कि तू जरा विचार तो सही कि तुच्छ पदार्थकी कीमतकी अपेक्षा भी तेरी कीमत तुच्छ है! जैसे एक पाईकी चार बीड़ी मिलती हैं-अर्थात् पाव पाईकी एक एक बीड़ी हुई—उस बीडीका यदि तुझे व्यसन हो और तू अर्व ज्ञानीके वचन श्रवण करता हो, तो यदि वहाँ भी कहींसे बीड़ीका आ आ गया हो तो तेरी आत्मा से भी चूंआ निकलने लगता है, और ज्ञानीके वचनोंपरसे प्रेम जाता रहता है । बीड़ी जैसे पदार्थमें, उसकी क्रियामें, वृत्तिके आकृष्ट होनेसे वृत्तिका क्षोभ निवृत्त होता नहीं ! जब पाव पाईकी बीड़ीसे भी ऐसा हो जाता है तो फिर व्यसनीकी कीमत तो उससे भी तुच्छ हुई-एक एक पाईकी चार चार आत्मायें हुई। इसलिये हरेक पदार्थमें तुच्छताका विचारकर वृत्तिको बाहर जाते हुए रोकनी चाहिये और उसका क्षय करना चाहिये। ___अनाथदासजीने कहा है कि 'एक अज्ञानीके करोड़ अभिप्राय हैं, और करोड़ शानियोंका एक अभिप्राय है।' उत्तम जाति, आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल और सत्संग इत्यादि प्रकारसे आत्म-गुण प्रगट होते हैं। तुम जैसा मानते हो वैसा आत्माका मूल स्वभाव नहीं है। इसी तरह आत्माको कोने कुछ सर्वथा आवृत कर नहीं रक्खा है । आत्माका पुरुषार्थ-धर्मका मार्ग तो सर्वथा खुला हुआ है। . बाजरे और गेहूंके एक दानेको यदि एक लाख वर्षतक रख छोड़ा हो (इतने दिनों में वह सब जायगा, यह बात हमारे ध्यानमें है), परन्तु यदि उसे पानी मिट्टी आदिका संयोग न मिले तो उसका उगना संभव नहीं है, उसी तरह सत्संग और विचारका संयोग न मिले तो आत्माका गुण प्रगट होता नहीं। श्रेणिक राजा नरकमें है, परन्तु समभावसे है, समकिती है, इसलिये उसे दुःख नहीं है। - चार लकड़हारोंकी तरह जीव भी चार प्रकारके होते हैं:- कोई चार लकड़हारे जंगलमें गये। पहिले पहिल सबने लकड़ियों उठा लीं। वहाँसे आगे चलनेपर चंदन आया । वहाँ तीनने तो चंदन ले लिया, और उनमेंसे एक कहने लगा कि 'मालूम नहीं कि इस तरहकी लकड़ियाँ बिकेंगी या नहीं, इसलिये मुझे तो इन्हें नहीं लेना है। हम जो रोज लेते हैं,
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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