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________________ - काविठा, श्रावण वदी २, १९५२ ६४३ __*उपदेश-छाया . स्त्री, पुत्र, परिग्रह आदि भावोंके प्रति मूलज्ञान होनेके पश्चात् यदि ऐसी भावना रहे कि जब मैं चाहूँगा तब इन स्त्रियों आदिके समागमका त्याग कर सकूँगा,' तो वह मूलज्ञानके ही वमन कर देनेकी बात समझनी चाहिये; अर्थात् उससे मूलज्ञानमें यद्यपि भेद नहीं पड़ता, परन्तु वह आव. रणरूप हो जाता है । तथा शिष्य आदि अथवा भक्ति करनेवाले मार्गसे च्युत हो जायेंगे अथवा अटक जावेंगे, ऐसी भावनासे यदि ज्ञानी-पुरुष भी आचरण करे तो ज्ञानी-पुरुषको भी निरावरणज्ञान आवरणरूप हो जाता है; और उससे ही वर्धमान आदि ज्ञानी-पुरुष अनिद्रापूर्वक साढ़े बारह वर्षतक रहे। उन्होंने सर्वथा असंगताको ही श्रेयस्कर समझा; एक शब्दके भी उच्चारण करनेको यथार्थ नहीं माना; और सर्वथा निरावरण, योगरहित, भोगरहित और भयरहित ज्ञान होनेके बाद ही उपदेशका कार्य आरंभ किया । इसलिये ' इसे इस तरह कहेंगे तो ठीक है, अथवा इसे इस तरह न कहा जाय तो मिथ्या है, इत्यादि विकल्पोंको साधु मुनियोंको न करना चाहिये। __ आजकलके समयमें मनुष्योंकी कुछ आयु तो स्त्रीके पास चली जाती है, कुछ निद्रामें चली जाती है, कुछ धंधे में चली जाती है, और जो कुछ थोडीसी बाकी रहती है, उसे कुगुरु लूट लेते हैं । अर्थात् मनुष्य-भव निरर्थक ही चला जाता है। (२) श्रावण वदी ३ प्रश्नः-केवलज्ञानीने जो सिद्धांतोंका प्ररूपण किया है वह 'पर-उपयोग' है या 'स्व-उपयोग? शास्त्रमें कहा है कि केवलज्ञानी स्व-उपयोगमें ही रहते हैं। ... उत्तरः-तीर्थकर किसीको उपदेश दें तो इससे कुछ 'पर-उपयोग ' नहीं कहा जाता । 'पर. उपयोग' उसे कहा जाता है कि जिस उपदेशको करते हुए रति, अरति, हर्ष और अहंकार होते हों। ज्ञानी-पुरुषको तो तादात्म्य संबंध होता नहीं, जिससे उपदेश करते हुए उसे रति अरति नहीं होते। रति-अरतिका होना, वह 'पर-उपयोग' कहा जाता है । यदि ऐसा हो तो केवली लोकालोकको जानते हैं-देखते हैं, उन्हें भी 'पर-उपयोग' कहा जाय । परन्तु यह बात नहीं है, क्योंकि उनमें रति-अरतिभाव नहीं है। सिद्धांतकी रचनाके विषयमें यह समझना चाहिये कि यदि अपनी बुद्धि न पहुंचे, तो इससे वे वचन असत् हैं, ऐसा न कहना चाहिये । क्योंकि जिसे तुम असत् कहते हो, उसे तुम पहिले शास्त्रसे ही जीव अजीव कहना सीखे हो । अर्थात् उन्हीं शास्त्रों के आधारसे ही, तुम जो कुछ जानते हो उसे संवत् १९५२ श्रावण-भाद्रपद मासमें श्रीमद् राजचन्द्र नंदके आसपास काविठा, रालज, वडवा आदि स्थलों में निवृत्ति के लिये रहे थे। उस समय उनके समीपवासी भाई अंबालाल लालचन्दको स्मृतिमै भीमद्के उपदेश-विचारोंकी जो छायामात्र रह गई, उसके भाषारसे उन्होंने उस छायाका सार भिन्न भिन्न स्थलोंपर बहुत अपूर्ण और अव्यवस्थितरूपमें लिख लिया था। यही सार यहाँ उपदेश-छायाके रूपमें दिया है।-अनुवादक.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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