SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 604
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भीमद् राजचन्द्र [पत्र ६३८ उसका कार्यरूप होना अवश्य बहुत दुष्कर मालूम होता है । क्योंकि छोटी छोटी बातोंमें भी बहुत मतभेद हैं, और उसका मूल बहुत गहरा है। मूलमार्गसे लोग लाखों कोस दूर हैं। इतना ही नहीं, परन्तु उन्हें यदि मूलमार्गकी जिज्ञासा उत्पन्न करानी हो, तो भी बहुत कालका परिचय होनेपर भी, वह होनी कठिन पड़े, ऐसी उनकी दुराग्रह आदिसे जड़प्रधान दशा रहती है। (२) उन्नतिके साधनोंकी स्मृति करता हूँ:बोधबीजके स्वरूपका निरूपण मूलमार्गके अनुसार जगह जगह हो । जगह जगह मतभेदसे कुछ भी कल्याण नहीं, यह बात फैले । प्रत्यक्ष सद्गुरुकी आज्ञासे ही धर्म है, यह बात लक्षमें आवे । द्रव्यानुयोग-आत्मविद्याका-प्रकाश हो । त्याग वैराग्यकी विशेषतापूर्वक साधु लोग विरें। नवतत्त्वप्रकाश. साधुधर्मप्रकाश. श्रावकधर्मप्रकाश. सद्भुतपदार्थ-विचार, बारह व्रतोंकी अनेक जीवोंको प्राप्ति. ६३८ वडवा, भाद्रपद सुदी १५ सोम. १९५२ - (ज्ञानकी अपेक्षासे ) सर्वव्यापक सच्चिदानन्द ऐसी मैं आत्मा एक हूँ-ऐसा विचार करनाध्यान करना। निर्मल, अत्यन्त निर्मल, परम शुद्ध, चैतन्यघन, प्रगट आत्मस्वरूप है। सब कुछ घटाते घटाते जो अबाध्य अनुभव रहता है, वही आत्मा है। जो सबको जानती है, वह आत्मा है । जो सब भावोंका प्रकाश करती है, वह आत्मा है । उपयोगमय आत्मा है। अन्याबाध समाधिस्वरूप आत्मा है। 'आत्मा है । आत्मा अत्यन्त प्रगट है, क्योंकि स्वसंवेदन प्रगट अनुभवमें है। अनुत्पन्न और अमलिनस्वरूप होनेसे आत्मा नित्य है। भ्रांतिरूपसे परभावका कर्ता है। उसके फलका भोक्ता है'; भान होनेपर ' स्वभाव परिणामी ' है। सर्वथा स्वभाव-परिणाम वह ' मोक्ष है'। सद्गुरु, सत्संग, सत्शाल, सद्विचार और संयम आदि ' उसके साधन हैं। आमाके अस्तित्वसे लगाकर निर्वाणतकके पद सच्चे हैं अत्यंत सधे है, क्योंकि वे प्रगट अनुभवमें आते हैं।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy