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________________ पत्र ६३५, ६३६,] विविध पत्र आदि संग्रह-२९वा वर्षे कठिनतासे आजीविका चलती हो तो भी मुमुक्षुको वह बहुत है । क्योंक विशेषका कुछ आवश्यक उपयोग ( कारण ) नहीं है-ऐसा जबतक निश्चय न किया जाय, तबतक तृष्णा नाना प्रकारसे आवरण किया ही करती है। लौकिक विशेषतामें कुछ सारभूतता नहीं है, यदि ऐसा निश्चय करने में आ जाय, तो मुश्किलसे आजीविका जितना मिलता हो तो भी तृप्ति रह सकती है। मुश्किलसे आजीविका जितना नहीं मिलता हो, तो भी मुमुक्षु जीव प्रायः करके आर्तध्यान होने नहीं देता, अथवा होनेपर उसपर विशेष खेद करता है, और आजीविकामें निराश होता हुआ भी यथाधर्म उपार्जन करनेकी मंद कल्पना करता है, इत्यादि प्रकारसे बर्ताव करते हुए तृष्णाका पराभव क्षीण होने योग्य मालूम होता है। ३. प्रायः आध्यात्मिक शास्त्र भी सत्पुरुषके वचनको आत्मज्ञानका हेतु होता है; क्योंकि 'परमार्थ आत्मा' शास्त्र में रहती नहीं, सत्पुरुषमें ही रहती है। यदि मुमुक्षुको किसी सत्पुरुषका आश्रय प्राप्त हुआ हो तो प्रायः ज्ञानकी याचना करनी योग्य नहीं; मात्र तथारूप वैराग्य, उपशम आदि प्राप्त करनेका उपाय करना ही योग्य है । उसके योग्य प्रकारसे सिद्ध होनेपर ज्ञानीका उपदेश सुलभं होता है, और वह यथार्थ विचार तथा ज्ञानका हेतु होता है। ४. जबतक कम उपाधियुक्त क्षेत्रमें आजीविका चलती हो तबतक विशेष प्राप्त करनेकी कल्पनासे मुमुक्षुको, किसी एक विशेष अलौकिक हेतुके बिना, अधिक उपाधियुक्त क्षेत्रमें जाना योग्य नहीं, क्योंकि उससे बहुत सी सद्वृत्तियाँ मंद पड़ जाती हैं, अथवा वृद्धिंगत ही नहीं होती। ५. योगवासिष्ठके पहिलेके दो प्रकरण और उस प्रकारके ग्रंथोंका मुमुक्षुको विशेष करके लक्ष करना योग्य है। . .-.--- ब्रह्मरन्ध्र आदिमें होनेवाले ज्ञानके विषयमें प्रथम बम्बई पत्र मिला था। हालमें उस विषयकी विगतका यहाँ दूसरा पत्र मिला है । वह सब ज्ञान होना संभव है, ऐसा कहने में कुछ कुछ समझके भेदसे व्याख्या भेद होता है । श्री..."का तुम्हें समागम है, तो उनके द्वारा उस मार्गका यथाशक्ति विशेष पुरुषार्थ होता हो तो करने योग्य है । वर्तमानमें उस मार्गके प्रति हमारा विशेष उपयोग रहता नहीं। तथा पत्रद्वारा उस मार्गका प्रायः विशेष लक्ष कराया जा सकता नहीं। ___ आत्माकी कुछ कुछ उज्वलताके लिये, उसका अस्तित्व तथा माहात्म्य आदि प्रतीतिमें आनेके लिये, तथा आत्मज्ञानके अधिकारीपनेके लिये वह साधन उपकारी है । इसके सिवाय प्रायः दूसरी तरह उपकारी नहीं; इतना लक्ष अवश्य रखना योग्य है । रालज, भाद्रपद १९५२ जैनदर्शनकी पद्धतिसे देखनेपर सम्यग्दर्शन, और वेदान्तकी पद्धतिसे देखनेपर हमें केवलज्ञान संभव है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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