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________________ ५०२ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ६२४ इस आत्मामें गुणका विशेष प्राकट्य समझकर, तुम सब किन्हीं मुमुक्षु भाईयोंकी भक्ति रहती हो तो भी उससे उस भक्तिकी योग्यता मेरे विषयमें संभव है, ऐसा समझनेकी योग्यता मेरी नहीं है। ___ यहाँ एक प्रार्थना कर देना योग्य है कि इस आत्मामें तुम्हें गुणका प्राकट्य भासमान होता हो और उससे अंतरमें भक्ति रहती हो, तो उस भक्तिका यथायोग्य विचारकर जैसे तुम्हें योग्य मालूम हो वैसा करना योग्य है । परन्तु इस आत्माके संबंधमें हाल में बाहर किसी प्रसंगकी चर्चा होने देना योग्य नहीं। क्योंकि अविरतिरूप उदय होनेसे गुणका प्राकट्य हो, तो भी वह लोगोंको भासमान होना कठिन पड़े, और उससे उसकी विराधना होनेका कुछ भी कारण होना संभव है; तथा इस आत्माद्वारा पूर्व महापुरुषके क्रमका खंडन करनेके समान कुछ भी प्रवृत्तिका समझा जाना संभव है। ६२४ बम्बई, श्रावण सुदी ५ शुक्र. १९५२ १. प्रश्न:-जिनागममें धर्मास्तिकाय आदि छह द्रव्य कहे गये हैं, उनमें कालको भी द्रव्य कहा है; और अस्तिकाय पाँच कहे हैं, कालको अस्तिकाय नहीं कहा-इसका क्या कारण होना चाहिये ! कदाचित् कालको अस्तिकाय न कहनेमें यह हेतु हो सकता है कि धर्मास्तिकाय आदि प्रदेशके समूहरूप हैं, और पुद्गल-परमाणु भी वैसी ही योग्यतावाला द्रव्य है, और काल वैसा नहीं है। वह मात्र एक समयरूप है, उससे कालको अस्तिकाय नहीं कहा । यहाँ ऐसी आशंका होती है कि एक समयके बाद दूसरी फिर तीसरी इस तरह समयकी धारा चलती ही रहती है, और उस धारामें बीचमें अवकाश नहीं होता, उससे एक दूसरे समयका संबंध अथवा समूहात्मकपना होना संभव है, जिससे काल भी अस्तिकाय कहा जा सकता है। तथा सर्वज्ञको तीन कालका ज्ञान होता है, ऐसा जो कहा है, उससे भी ऐसा मालूम होता है कि सर्व काल-समूह ज्ञान-गोचर होता है, और सर्व समूह ज्ञान-गोचर होता हो तो कालका अस्तिकाय होना संभव है, और जिनागममें उसे अस्तिकाय माना नहीं ! उत्तर:-जिनागमकी प्ररूपणा है कि काल औपचारिक द्रव्य है, स्वाभाविक द्रव्य नहीं। जो पाँच अस्तिकाय कहे हैं, मुख्यरूपसे उनकी वर्तनाका नाम ही काल है। उस वर्तनाका दूसरा नाम पर्याय भी है। जैसे धर्मास्तिकाय एक समयमें असंख्यात प्रदेशके समूहरूप मालूम होता है, वैसे काल समूहरूपसे मालूम नहीं होता । जब एक समय रहकर नष्ट हो जाता है, तब दूसरा समय उत्पन्न होता है । वह समय द्रव्यकी वर्तनाका सूक्ष्मसे सूक्ष्म भाग है। सर्वज्ञको सर्व कालका ज्ञान होता है, ऐसा जो कहा है, उसका मुख्य अर्थ तो यह है कि उन्हें पंचास्तिकाय द्रव्य-पर्यायरूपसे ज्ञानगोचर होते हैं, और सर्व पर्यायका जो ज्ञान है, यही सर्व कालका ज्ञान कहा गया है । एक समयमें सर्वज्ञ भी एक समयको ही मौजूद देखते हैं, और भूतकाल अथवा भावीकालको मौजूद नहीं देखते । यदि वे इन्हें भी मौजूद देखें तो वह भी वर्तमानकाल ही कहा जाय ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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