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________________ पत्र ६११, ६१२, ६१३] विविध पत्र आदि संग्रह-२९वाँ वर्ष ४९७ यदि जिनसम्मत केवलज्ञानको लोकालोक-ज्ञायक मानें तो उस केवलज्ञानमें आहार, निहार, विहार आदि क्रियायें किस तरह हो सकती हैं ! वर्तमानमें उसकी इस क्षेत्रमें प्राप्ति न होनेका क्या हेतु है ! ६११ मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव, परमावधि, केवल. ६१२ परमावधि ज्ञानके उत्पन्न होनेके पश्चात् केवलज्ञान उत्पन्न होता है, यह रहस्य विचार करने योग्य है। अनादि अनंत कालका, अनंत अलोकका-गणितसे अतीत अथवा असंख्यातसे पर ऐसे जीवसमूह, परमाणुसमूहके अनंत होनेपर; अनंतपनेका साक्षात्कार हो उस गणितातीतपनेके होनेपर-साक्षात् अनंतपना किस तरह जाना जा सकता है ? इस विरोधका परिहार ऊपर कहे हुए रहस्यसे होने योग्य मालूम होता है। तथा केवलज्ञान निर्विकल्प है, उसमें उपयोगका प्रयोग करना पड़ता नहीं । सहज उपयोगसे ही वह ज्ञान होता है। यह रहस्य भी विचार करने योग्य है। ___ क्योंक प्रथम सिद्ध कौन है ? प्रथम जीव-पर्याय कौनसी है ! प्रथम परमाणु-पर्याय कौनसी है ? यह केवलज्ञान-गोचर होनेपर भी अनादि ही मालूम होता है । अर्थात् केवलज्ञान उसके आदिको नहीं प्राप्त करता, और केवलज्ञानसे कुछ छिपा हुआ भी नहीं है, ये दोनों बातें परस्पर विरोधी हैं । उनका समाधान परमावधिके विचारसे तथा सहज उपयोगके विचारसे समझमें आने योग्य दृष्टिगोचर होता है। ६१३ कुछ भी है। क्या है ! किस प्रकारसे है ! क्या वह जानने योग्य है। जाननेका फल क्या है? बंधका हेतु क्या है ! बंध पुद्गलके निमित्तसे है अथवा जीवके दोषसे है ! जिस प्रकारसे समझते हो उस प्रकारसे बंध नहीं हटाया जा सकता, ऐसा सिद्ध होता है। इसलिये मोक्ष-पदकी हानि होती है। उसका नास्तित्व ठहरता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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