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________________ पत्र ५९९, ६०० ] विविध पत्र आदि संग्रह-२९वाँ वर्ष ४९३ यदि सर्व देश काल आदिका ज्ञान जिस केवलीको हो उस केवलीको सिद्ध ' मानें तो यह संभव माना जा सकता है, क्योंकि उसे योगधारीपना नहीं कहा है। किन्तु इसमें भी यह समझना चाहिये कि फिर भी योगधारीकी अपेक्षासे सिद्धमें वैसे केवलज्ञानकी मान्यता हो तो योगरहितपना होनेसे उसमें सर्व देश काल आदिका ज्ञान संभव हो सकता है—इतना प्रतिपादन करनेके लिये ही यह लिखा है, किन्तु सिद्धको वैसा ज्ञान होता ही है, इस अर्थको प्रतिपादन करनेके लिये नहीं लिखा । यद्यपि जिनागमके रूढी-अर्थके अनुसार देखनेसे तो 'देहधारी केवली' और 'सिद्ध'में केवलज्ञानका भेद नहीं होता -दोनोंको ही सर्व देश काल आदिका सम्पूर्ण ज्ञान होता है, यह रूढी-अर्थ है । परन्तु दूसरी अपेक्षासे जिनागम देखनेसे कुछ भिन्न ही मालूम पड़ता है । जिनागममें निम्न प्रकारसे पाठ देखनेमें आता है: " केवलज्ञान दो प्रकारका कहा है--सयोगीभवस्थ-केवलज्ञान और अयोगीभवस्थ-केवलज्ञान । सयोगी केवलज्ञान दो प्रकारका कहा है-प्रथमसमय अर्थात् उत्पन्न होनेके समयका सयोगी केवलज्ञान, और अप्रथमसमय अर्थात् अयोगी होनेके प्रवेश समयके पहिलेका केवलज्ञान । इसी तरह अयोगीभवस्थकेवलज्ञान भी दो प्रकारका कहा है—प्रथमसमयका केवलज्ञान और अप्रथम अर्थात् सिद्ध होनेके पहिलेके अन्तिम समयका केवलज्ञान । " इत्यादि प्रकारसे केवलज्ञानके भेद जिनागममें कहे हैं, उसका परमार्थ क्या होना चाहिये ! कदाचित् यह समाधान करें कि बाह्य कारणकी अपेक्षासे केवलज्ञानके ये भेद बताये हैं, तो यहाँ ऐसी शंका हो सकती है कि 'जहाँ कुछ भी पुरुषार्थ सिद्ध न होता हो, और जिसमें विकल्पका अवकाश न हो उसमें भेद करनेकी प्रवृत्ति ज्ञानीके वचनमें संभव नहीं है । प्रथमसमय-केवलज्ञान और अप्रथमसमयकेवलज्ञान इस प्रकारका भेद करनेमें यदि केवलज्ञानेका तारतम्य घटता बढ़ता हो तो वह भेद संभव है, परन्तु तारतम्यमें तो वैसा होता नहीं, तो फिर भेद करनेका क्या कारण है ?-इत्यादि प्रश्न यहाँ होते हैं, उनके ऊपर और प्रथम पत्रके ऊपर यथाशक्ति विचार करना चाहिये । ५९९ __ हेतु अवक्तव्य ? एकमें किस तरह पर्यवसान हो सकता है ? अथवा होता ही नहीं ! व्यवहार-रचना की है, ऐसा क्या किसी हेतुसे सिद्ध होता है ! स्वस्थिति-आत्मदशासंबंधी-विचार. तथा उसका पर्यवसान ! उसके पश्चात् लोकोपकारक प्रवृत्ति ! लोकोपकार प्रवृत्तिका नियम. वर्तमानमें ( हालमें ) किस तरह प्रवृत्ति करना उचित है ?
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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