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________________ ४८४ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ५८९ (१) उस उपदेशका जिज्ञासु जीवमें जिस तरह परिणमन हो, ऐसे संयोगोंमें वह जिज्ञासु जीव न रहता हो, अथवा उस उपदेशके विस्तारसे करनेपर भी उसमें उसके ग्रहण करनेकी तथारूप योग्यता न हो, तो ज्ञानी-पुरुष उन जीवोंको उपदेश करनेमें अल्पभावसे प्रवृत्ति करता है। : (२) अथवा अपनेको बाह्य व्यवहार ऐसा उदय हो कि वह उपदेश जिज्ञासु जीवको परिणमन होनेमें प्रतिबंधरूप हो, अथवा तथारूप कारणके बिना वैसा बर्ताव कर वह मुख्य-मार्गके विरोधरूप अथवा संशयके हेतुरूप होनेका कारण होता हो, तो भी ज्ञानी-पुरुष उपदेशमें अल्पभावसे ही प्रवृत्ति करता है अथवा मौन रहता है। सर्वसंग-परित्याग कर चले जानेसे भी जीव उपाधिरहित नहीं होता। क्योंकि जबतक अंतर्परिणतिपर दृष्टि न हो और तथारूप मार्गमें प्रवृत्ति न हो, तबतक सर्वसंग-परित्याग भी नाम मात्र ही होता है । और वैसे अवसरमें भी अंतर्परिणतिपर दृष्टि देनेका भान जीवको आना कठिन है । तो फिर ऐसे गृह-व्यवहारमें लौकिक अभिनिवेशपूर्वक रहकर अंतर्परिणतिपर दृष्टि रख सकना कितना दुःसाध्य होना चाहिये, उसपर भी विचार करना योग्य है। तथा वैसे व्यवहारमें रहकर जीवको अन्तर्परिणतिपर कितना बल रखना उचित है, वह भी विचारना चाहिये, और अवश्य वैसा करना चाहिये ।। __ अधिक क्या लिखें ! जितनी अपनी शक्ति हो उस सर्व शक्तिसे एक लक्ष रखकर, लौकिक अभिनिवेशको अल्प कर, कुछ भी अपूर्व निरावरणपना दिखाई नहीं देता, इसलिये 'समझ लेनेका केवल अभिमान ही है,' इस प्रकार जीवको समझाकर, जिस प्रकारसे जीव ज्ञान दर्शन और चारित्रमें सतत जागृत हो, उसीके करनेमें वृत्ति लगाना, और रात दिन उसी चिंतनमें प्रवृत्ति करना, यही विचारवान जीवका कर्त्तव्य है। और उसके लिये सत्संग, सत्शास्त्र और सरलता आदि निजगुण उपकारभूत हैं, ऐसा विचारकर उसका आश्रय करना उचित है। जबतक लौकिक अभिनिवेश अर्थात् द्रव्यादि लोभ, तृष्णा, दैहिक-मान, कुल, जाति आदिसंबंधी मोह अथवा विशेष मान हो, उस बातका त्याग न करना हो, अपनी बुद्धिसे-स्वेच्छासे-अमुक गच्छ आदिका आग्रह रखना हो, तबतक जीवको अपूर्व गुण कैसे उत्पन्न हो सकता है ! उसका विचार सुगम है। हालमें अधिक लिखा जा सके इस प्रकारका यहाँ उदय नहीं है । तथा अधिक लिखना अथवा कहना भी किसी किसी प्रसंगमें ही होने देना योग्य है। तुम्हारी विशेष जिज्ञासासे प्रारब्धोदयका वेदन करते हुए जो कुछ लिखा जा सकता था, उसकी अपेक्षा भी कुछ कुछ उदारणा करके विशेष ही लिखा है। ५८९ बम्बई, चैत्र सुदी २ सोम. १९५२ जिसमें क्षण भरमें हर्ष और क्षण भरमें शोक हो आवे, ऐसे इस व्यवहारमें जो ज्ञानी-पुरुष समदशासे रहते हैं, उन्हें अत्यंत भक्तिम धन्य मानते हैं। और सब मुमुक्षु जीवोंको इसी दशाकी उपासना करना चाहिये, ऐसा निश्चय समझकर परिणति करना योग्य है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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