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________________ ४८० . भीमद राजचन्द्र .... [पत्र ५७९, ५८०, ५८१ . .. ५७९ . . : बम्बई, माघ सुदी ४ रवि..१९५२ .. असंग आत्मस्वरूपको सत्संगका संयोग मिलनेपर सबसे सुलभ कहना योग्य है, इसमें संशय नह है। सब ज्ञानी-पुरुषोंने अतिशयरूपसे जो सत्संगका माहात्म्य कहा है, वह यथार्थ है। इसमें विचार. वानको किसी तरहका विकल्प करना उचित नहीं है। ५८० बम्बई, फाल्गुन सुदी १, १९५२ ॐ सदस्पसाद . ज्ञानीका सब व्यवहार परमार्थ-मूलक होता है, तो भी जिस दिन उदय भी आत्माकार प्रवृत्ति करेगा, उस दिनको धन्य है। सर्व दुःखोंसे मुक्त होनेका सर्वोत्कृष्ट उपाय जो आत्मज्ञान कहा है, वह ज्ञानी-पुरुषोंका वचन सच्चा है—अत्यंत सच्चा है। जबतक जीवको तयारूप आत्मज्ञान न हो तबतक आत्यंतिक बंधनकी निवृत्ति होना संभव नहीं, इसमें सशंय नहीं है। उस आत्मज्ञानके होनेतक जीवको 'मूर्तिमान आत्मज्ञान स्वरूप' सद्गुरुदेवका आश्रय निरन्तर अवश्य ही करना चाहिये, इसमें संशय नहीं है। जब उस आश्रयका वियोग हो तब नित्य ही आश्रयभावना करनी चाहिये। उदयके योगसे तयारूप आत्मज्ञान होनेके पूर्व यदि उपदेश कार्य-करना पड़ता हो तो विचारवान मुमुक्षु परमार्थ मार्गके अनुसरण करनेके हेतुभूत ऐसे सत्पुरुषकी भक्ति, सत्पुरुषके गुणगान, सत्पुरुषके प्रति प्रमोदभावना और सत्पुरुषके प्रति अविरोध भावनाका लोगोंको उपदेश देता है। जिस तरह मतमतांतरका अभिनिवेश दूर हो, और सत्पुरुषके वचन ग्रहण करनेकी आत्मवृत्ति हो, वैसा करता है। वर्तमान कालमें उस क्रमकी विशेष हानि होगी, ऐसा समझकर ज्ञानी-पुरुषोंने इस कालको दुःषमकाल कहा है। और वैसा प्रत्यक्ष दिखाई देता है। सब कार्योंमें कर्त्तव्य केवल आत्मार्थ ही है-यह भावना मुमुक्षु जीवको नित्य करनी चाहिये । ५८१ बम्बई, फाल्गुन सुदी १०, १९५२ ॐ सद्गुरूप्रसाद (१) हालमें विस्तारपूर्वक पत्र लिखना नहीं होता, उससे चित्तमें वैराग्य उपशम आदिके विशेष प्रदीप्त रहनेमें सत्शास्त्रको ही एक विशेष आधारभूत निमित्त 'समझकर श्रीसुंदरदास आदिके ग्रंथोंका हो सके तो दोसे चार घड़ीतक जिससे नियमित वाचना-पृच्छना हो वैसा करनेके लिए लिखा था । श्रीसुंदरदास के ग्रंथका आदिसे लेकर अंततक हालमें विशेष अनुप्रेक्षापूर्वक विचार करनेके लिए विनती है। (२) कायाके रहनेतक माया ( अर्थात् कषाय । आदि. ) संभव है, ऐसा श्री.....'को लगता है, वह अभिप्राय प्रायः (बहुत करके) तो यथार्थ ही है। तो भी किसी पुरुष
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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