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________________ पत्र ५६२, ५६३, ५६४, ५६५ ] विविष पत्र आदि संग्रह-२९वा वर्ष ४७५ अनंत ज्ञानी-पुरुषोंका अनुभव किया हुआ यह शाश्वत सुगम मोक्षमार्ग जीवके लक्षमें नहीं आता, इससे उत्पन्न हुए खेदसहित आश्चर्यको भी यहाँ शान्त करते हैं । सत्संग सद्विचारसे शान्त करनेतकके समस्त पद अत्यंत सत्य हैं, सुगम हैं, सुगोचर हैं, सहज हैं और सन्देहरहित ५६२ बम्बई, कार्तिक सुदी ३ सोम. १९५२ श्रीवेदान्तमें निरूपित मुमुक्षु जीवका लक्षण तथा श्रीजिनद्वारा निरूपित सम्यग्दृष्टि जीवका लक्षण मनन करने योग्य है ( यदि उस प्रकारका योग न हो तो बाँचने योग्य है ), विशेषरूपसे मनन करने योग्य है-आत्मामें परिणमाने योग्य है । अपने क्षयोपशम-बलको कम जानकर, अहंममता आदिके पराभव होनेके लिये नित्य अपनी न्यूनता देखना चाहिये-विशेष संग-प्रसंगको कम करना चाहिये। ५६३ बम्बई, कार्तिक सुदी १३ गुरु. १९५२ (१) आत्म-हेतुभूत संगके सिवाय मुमुक्षु जीवको सर्वसंगको घटाना ही योग्य है; क्योंकि उसके बिना परमार्थका आविर्भूत होना कठिन है । और उस कारण श्रीजिनने यह व्यवहार-द्रव्यसंयमरूप साधुत्व उपदेश किया है । सहजात्मस्वरूप. (२) अंतर्लक्ष्यकी तरह हालमें जो वृत्ति वर्तन करती हुई दिखाई देती है, वह उपकारक है, और वह वृत्ति क्रमपूर्वक परमार्थकी यथार्थतामें विशेष उपकारक होती है । हालमें सुंदरदासजीके ग्रंथ अथवा श्रीयोगवासिष्ठ बाँचना । श्रीसौभाग यहीं हैं। १०.१०. १८९५ (३) निशदिन नैनमें नींद न आवे, नर तबहि नारायन पावे । -सुंदरदासजी. ५६४ बम्बई, मंगसिर सुदी १० मंगल. १९५२ जिस जिस प्रकारसे परद्रव्य ( वस्तु ) के कार्यकी अल्पता हो, निजके दोष देखनेमें दृढ़ लक्ष रहे, और सत्समागम सत्शास्त्रमें बढ़ती हुई परिणतिसे परम भक्ति रहा करे, उस प्रकारका आत्मभाव करते हुए तथा ज्ञानीके वचनोंका विचार करनेसे दशा-विशेष प्राप्त करते हुए जो यथार्थ समाधिको योग्य हो, ऐसा लक्ष रखना-यह कहा था। ५६५ शुभेच्छा, विचार, ज्ञान इत्यादि सब भूमिकाओंमें सर्वसंगका परित्याग बलवान उपकारी है, यह समझकर ज्ञानी-पुरुषोंने अनगारत्वका निरूपण किया है । यद्यपि परमार्थसे सर्वसंग-परित्याग, यथार्थ बोध होनेपर प्राप्त होना संभव है, यह जानते हुए भी यदि नित्य सत्संगमें ही निवास हो तो
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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