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________________ .... ..... भीमद् राजचन्द्र [पत्र ५५७, ५५८,५५९ उचित है। किसी भी वस्तुका पूर्व-पश्चात् अस्तित्व न हो तो उसका अस्तित्व मध्यमें भी नहीं होता। यह अनुभव विचार करनेसे होता है। वस्तुकी सर्वथा उत्पत्ति अथवा सर्वथा नाश नहीं होता-उसका अस्तित्व सर्वकालमें है: रूपांतरपरिणाम ही हुआ करता है, वस्तुत्वमें परिवर्तन नहीं होता-यह श्रीजिनका जो अभिमत है, वह विचारने योग्य है। षड्दर्शनसमुच्चय कुछ कुछ गहन है, तो भी फिर फिरसे विचार करनेसे उसका बहुत कुछ बोध होगा। ज्यों ज्यों चित्तकी शुद्धि और स्थिरता होती है, त्यों त्यों ज्ञानीके वचनोंका विचार यथायोग्य रीतिसे हो सकता है। सर्वज्ञानका फल भी आत्म-स्थिरता होना ही है, ऐसा वीतराग पुरुषोंने जो कहा है, वह अत्यंत सत्य है। . ५५७ निर्वाणमार्ग अगम अगोचर है, इसमें संशय नहीं । अपनी शक्तिसे, सद्गुरुके आश्रय बिना उस मार्गकी खोज करना असंभव है, ऐसा बारंबार दिखाई देता है। इतना ही नहीं, किन्तु श्रीसद्गुरुचरणके आश्रयपूर्वक जिसे बोध-बीजकी प्राप्ति हुई हो, ऐसे पुरुषको भी सद्गुरुके समागमका नित्य आराधन करना चाहिये । जगत्के प्रसंगको देखनेसे ऐसा मालूम पड़ता है कि वैसे समागम और आश्रयके बिना निरालंब बोधका स्थिर रहना कठिन है। ५५८ दृश्यको जिसने अदृश्य किया, और अदृश्यको दृश्य किया, ऐसे ज्ञानी-पुरुषोंका आश्चर्यकारक अनंत ऐश्वर्य वीर्य-वाणीसे कहा जा सकना संभव नहीं। बीती हुई एक पल भी पीछे नहीं मिलती और वह अमूल्य है, तो फिर समस्त आयुस्थितिकी तो बात ही क्या है ? एक पलका भी हीन उपयोग यह एक अमूल्य कौस्तुभ. खो देनेके अपेक्षा भी विशेष हानिकारक है, तो फिर ऐसी साठ पलकी एक घड़ीका हीन उपयोग करनेसे कितनी हानि होनी चाहिये ! इसी तरह एक दिन, एक पक्ष, एक मास, एक वर्ष और अनुक्रमसे समस्त आयु-स्थितिका हीन उपयोग, यह कितनी हानि और कितने अश्रेयका कारण होना संभव है, यह विचार शुद्ध हृदयसे करनेसे तुरत ही आ सकेगा। सुख और आनन्द सब प्राणियों, सब जीवों, सब सत्त्वों, और सब जंतुओंको निरन्तर प्रिय है फिर भी वे दुःख और आनन्दको भोगते हैं, इसका क्या कारण होना चाहिये ! तो उत्तर मिलता है कि अज्ञान और उसके द्वारा जिन्दगीका हीन उपयोग होते हुए रोकनेके लिये प्रत्येक प्राणीकी इच्छा होनी चाहिये । परन्तु किस साधनके द्वारा !
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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