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________________ ४६८ ...... श्रीमद् राजचन्द्र .. [पत्र ५४५ व्यवहार सत्य है। इसमें भी यदि किसी प्राणीके प्राणोंका नाश होता हो, और उन्मत्ततासे वचन बोला गया हो–यद्यपि वह. वचन सत्य ही हो तो भी वह असत्यके ही समान है, ऐसा जानकर प्रवृत्ति करना चाहिये । जो सत्यसे विपरीत हो उसे असत्य कहा जाता है। क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, दुगुंछा ये अज्ञान आदिसे ही बोले जाते हैं। वास्तवमें क्रोध आदि मोहनीयके ही अंग हैं। उसकी स्थिति दूसरे समस्त कर्मोंसे अधिक अर्थात् सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरकी है । इस कर्मके क्षय हुए बिना ज्ञानावरण आदि कर्म सम्पूर्णरूपसे क्षय नहीं हो सकते । यद्यपि सिद्धान्तमें पहिले ज्ञानावरण आदि कर्माको ही गिनाया है, परन्तु इस कर्मकी महत्ता अधिक है, क्योंकि संसारके मूलभूत राग-द्वेषका यह मूलस्थान है, इसलिये संसारमें भ्रमण करनेमें इसी कर्मकी मुख्यता है । इस प्रकार मोहनीय कर्मकी प्रबलता है, फिर भी उसका क्षय करना सरल है । अर्थात् जैसे वेदनीय कर्म भोगे बिना निष्फल नहीं होता, सो बात इस कर्मके विषयमें नहीं है। मोहनीय कर्मकी प्रकृतिरूप क्रोध, मान, माया, और लोभ आदि कषाय तथा नोकषायका अनुक्रमसे क्षमा, नम्रता, निरभिमानता, सरलता, अदंभता, और संतोष आदिकी विपक्ष भावनाओंसे, अर्थात् केवल विचार करनेमात्रसे ऊपर बताई हुई कषाय निष्फल की जा सकती हैं। नोकषाय भी विचार करनेसे क्षय की जा सकती है; अर्थात् उसके लिये बाह्य कुछ नहीं करना पड़ता । 'मुनि' यह नाम भी इस पूर्वोक्त रीतिसे विचार कर वचन बोलनेसे ही सत्य है । प्रायः करके प्रयोजनके बिना नहीं बोलनेका नाम ही मुनिपना है। राग द्वेष और अज्ञानके बिना यथास्थित वस्तुका स्वरूप कहते हुए या बोलते हुए भी मुनिपना-मौनभाव-समझना चाहिये । पूर्व तीर्थकर आदि महात्माओंने इसी तरह विचार कर मौन धारण किया था; और लगभग साढ़े बारह वर्ष मौन धारण करनेवाले भगवान् वीरप्रभुने इसी प्रकारके उत्कृष्ट विचारपूर्वक आत्मामेंसे फिरा फिराकर मोहनीय कर्मके संबंधको निकाल बाहर करके केवलज्ञानदर्शन प्रगट किया था। आत्मा विचार करे तो सत्य बोलना कुछ कठिन नहीं है । व्यवहार सत्य-भाषा अनेकबार बोलनेमें आती है, किन्तु परमार्थ सत्य बोलने में नहीं आया, इसलिये इस जीवको संसारका भ्रमण मिटता नहीं है। सम्यक्त्व होनेके बाद अभ्याससे परमार्थ · सत्य बोला जा सकता है; और बादमें विशेष अभ्यासपूर्वक स्वाभाविक उपयोग रहा करता है। असत्यके बोले बिना माया नहीं हो सकती। विश्वासघात करनेका भी असत्यमें ही समावेश होता है । झूठे दस्तावेज़ लिखानेको भी असत्य जानना चाहिये । तप-प्रधान मान आदिकी भावनासे आत्म-हितार्थ करने जैसा ढोंग बनाना, उसे भी असत्य समझना चाहिये। अखंड सम्यग्दर्शन प्राप्त हो तो ही सम्पूर्णरूपसे परमार्थ सत्य वचन बोला जा सकता है; अर्थात् तो ही आत्मामेंसे अन्य पदार्थोसे भिन्नरूप उपयोग होनेसे वचनकी प्रवृत्ति हो सकती है। यदि कोई पूँछे कि लोक शाश्वत क्यों कहा गया है, तो उसका कारण ध्यानमें रखकर यदि कोई बोले तो वह. सत्य ही समझा जाय । . . . व्यवहार सत्यके भी दो विभाग हो सकते हैं एक सर्वथा व्यवहार सत्य और दूसस देश व्यवहार सत्य । निश्चय सत्यपर उपयोग रखकर, प्रिय अर्थात् जो वचन अन्यके अथवा जिसके संबंधसे
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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