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श्रीमद् राजवन्द्र . .. [पत्र ६६१, ५३२ किसी भी प्रसंगमें प्रवृत्ति करते हुए तथा लिखते हुए जो प्रायः निष्क्रिय परिणति रहती है, उस परिणतिके कारण हालमें विचारका बराबर कहना नहीं बनता । सहजात्मस्वरूपसे यथायोग्य.
५३१ बम्बई, आषाढ वदी १५सोम.१९५१:
ॐनमा वीतरागाय (१) सर्व प्रतिबंधसे मुक्त हुए बिना सर्व दुःखसे मुक्त होना संभव नहीं ।
(२) जन्मसे जिसे मति श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान थे, और आत्मोपयोगी वैराग्यदशा थी, तथा अल्पकालमें भोग-कर्मको क्षीण करके संयमको ग्रहण करते हुए मनःपर्यवज्ञान प्राप्त किया था, ऐसे श्रीमद् महावीरस्वामी भी बारह वर्ष और साढ़े छह महीनेतक मौन रहकर विचरते रहे ! इस प्रकारका उनका आचरण, 'उस उपदेश-मार्गका प्रचार करनेमें किसी भी जीवको अत्यंतरूपसे विचार करके प्रवृत्ति करना योग्य है, ऐसी अखंड शिक्षाका उपदेश करता है । तथा जिनभगवान् जैसेने जिस प्रतिबंधकी निवृत्तिके लिये प्रयत्न किया, उस प्रतिबंधमें अजागृत रहने योग्य कोई भी जीव नहीं होता, ऐसा बताया है, और अनंत आत्मार्थका उस आचरणसे प्रकाश किया है-उस क्रमके प्रति विचारनेकी विशेष स्थिरता रहती है-उसे रखना योग्य है।
जिस प्रकारका पूर्व प्रारब्ध भोगनेपर निवृत्त होने योग्य है, उस प्रकारके प्रारब्धका उदासीनतासे वेदन करना उचित है, जिससे उस प्रकारके प्रति प्रवृत्ति करते हुए जो कोई अवसर प्राप्त होता है, उस उस अवसरपर जागृत उपयोग न हो तो जीवको समाधिकी विराधना होते हुए देर न लगे । इसलिये सर्व संगभावको मूलरूपसे परिणमा कर, जिससे भोगे बिना छुटकारा न हो सके, वैसे प्रसंगके. प्रति प्रवृत्ति होने देना योग्य है, तो भी उस प्रकारको करते हुए जिससे सर्वांशमें असंगता उत्पन्न हो, उस प्रकारका ही सेवन करना उचित है।
कुछ समयसे 'सहज-प्रवृत्ति' और 'उदीरण-प्रवृत्ति' इस भेदसे प्रवृत्ति रहा करती है। मुख्यरूपसे सहज-प्रवृत्ति रहती है । सहज-प्रवृत्ति उसे कहते हैं जो प्रारब्धोदयसे उत्पन्न हो परन्तु जिसमें कर्त्तव्य-परिणाम नहीं होता । दूसरी उदीरण-प्रवृत्ति वह है जो प्रवृत्ति पर पदार्थ आदिके संबंधसे करनी पड़े । हालमें दूसरी प्रवृत्ति होनेमें आत्मा मंद होता है । क्योंकि अपूर्व समाधि-योगको. उस कारणसे भी प्रतिबंध होता है, ऐसा सुना था और समझा था और हालमें वैसे स्पष्टरूपसे वेदन किया है। उन सब कारणोंसे अधिक समागममें आने, पत्र आदिसे कुछ भी प्रश्नोत्तर आदिके लिखने, तथा दूसरे प्रकारसे परमार्थ आदिके लिखने-करनेकी भी मंद हो जानेकी पर्यायका आत्मा सेवन करता हैं। इस पर्यायका सेवन किये बिना अपूर्व समाधिकी हानि होना संभव था। ऐसा होनेपर भी यथायोग्य मंद प्रवृत्ति नहीं हुई है।
बम्बई, आषाढ वदी १५, १९५१ अनंतानुबंधीका जो दूसरा भेद लिखा है, तत्संबंधी विशेषार्थ निम्नरूपसे है । उदयसे अथवा उदासभावसंयुक्त. मंद परिणत बुद्धिसे जबतक भोग आदिमें प्रवृत्ति रहे, उस