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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ५१८
दिया है, ऐसा कहा है । यह जो हमने कहा है, उसी बातके विचारसे, जिससे हमारी आत्मामें आत्मगुण आविर्भूत होकर सहज समाधिपर्यंत प्राप्त हुआ, ऐसे सत्संगको मैं अत्यंत अत्यंत भक्तिसे नमस्कार करता हूँ।
८. अवश्य ही इस जीवको प्रथम सब साधनोंको गौण मानकर, निर्वाणके मुख्य हेतु ऐसे सत्संगकी ही सर्वार्पणरूपसे उपासना करना योग्य है, जिससे सब साधन सुलभ होते हैं-ऐसा हमारा आत्म-साक्षात्कार है।
९. उस सत्संगके प्राप्त होनेपर यदि इस जीवको कल्याण प्राप्त न हो तो अवश्य इस जीवका ही दोष है, क्योंकि उस सत्संगके अपूर्व, अलभ्य और अत्यंत दुर्लभ ऐसे संयोगमें भी उसने उस सत्संगके संयोगको बाधा करनेवाले ऐसे मिथ्या कारणोंका त्याग नहीं किया !
१०. मिथ्याग्रह, स्वच्छंदता, प्रमाद और इन्द्रिय-विषयोंसे यदि उपेक्षा न की हो, तो भी सत्संग फलवान नहीं होता, अथवा सत्संगमें एकनिष्ठा, अपूर्व भक्ति न की हो, तो भी सत्संग फलवान नहीं होता । यदि एक इस प्रकारकी अपूर्व भक्तिसे सत्संगकी उपासना की हो तो अल्पकालमें ही मिथ्याग्रह आदिका नाश हो, और अनुक्रमसे जीव सब दोषोंसे मुक्त हो जाय ।।
११. सत्संगकी पहिचान होना जीवको दुर्लभ है। किसी महान् पुण्यके योगसे उसकी पहिचान होनेपर निश्चयसे यही सत्संग-सत्पुरुष है, ऐसा जिसे साक्षीभाव उत्पन्न हुआ हो, उस जीवको तो अवश्य ही प्रवृत्तिका संकोच करना चाहिये; अपने दोषोंको प्रतिक्षण, हरेक कार्यमें, हरेक प्रसंगमें तीक्ष्ण उपयोगपूर्वक देखना चाहिये, और देखकर उनका क्षय करना चाहिये, तथा उस सत्संगके लिये यदि देहत्याग करना पड़ता हो तो उसे भी स्वीकार करना चाहिये । परन्तु उससे किसी पदार्थमें विशेष भक्तिस्नेह-होने देना योग्य नहीं। तथा प्रमादसे रसगारव आदि दोषोंसे उस सत्संगके प्राप्त होनेपर पुरुषार्थ-धर्म मंद रहता है, और सत्संग फलवान नहीं होता, यह जानकर पुरुषार्थ-वीर्यका गुप्त रखना योग्य नहीं।
१२. सत्संगकी अर्थात् सत्पुरुषकी पहिचान होनेपर भी यदि वह संयोग निरन्तर न रहता हो तो सत्संगसे प्राप्त उपदेशको प्रत्यक्ष सत्पुरुषके तुल्य समझकर उसका विचार तथा आराधन करना चाहिये, जिस आराधनसे जीवको अपूर्व सम्यक्त्र उत्पन्न होता है ।
१३. जीवको सबसे मुख्य और सबसे आवश्यक यह निश्चय रखना चाहिये कि मुझे जो कुछ करना है वह जो आत्माके कल्याणरूप हो उसे ही करना है, और उसके लिये इन तीन योगोंकी उदय-बलसे प्रवृत्ति होती हो तो होने देना, तो भी अन्तमें उस त्रियोगसे रहित स्थिति करनेके लिये उस प्रवृत्तिका संकोच करते करते जिससे उसका क्षय हो जाय, वही उपाय करना चाहिये । वह उपाय मिथ्या आग्रहका त्याग, स्वच्छंदताका त्याग, प्रमाद और इन्द्रिय-विषयका त्याग, यह मुख्य है । उसको सत्संगके संयोगमें अवश्य ही आराधन करते रहना चाहिये और सत्संगकी परोक्षतामें तो उसका अवश्य अवश्य ही आराधन करते रहना चाहिये । क्योंकि सत्संगके प्रसंगमें तो यदि जीवकी कुछ न्यूनता भी हो तो उसके निवारण होनेका साधन सत्संग मौजूद है, परन्तु सत्संगकी परोक्षतामें तो एक अपना आत्म-बल ही साधन है । यदि वह आत्म-बल सत्संगसे प्राप्त बोधका अनुसरण न करे, उसका आचरण न करे, आचरण करनेमें होनेवाले प्रमादको न छोदे, तो कभी भी जीवका कल्याण न हो। .