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व्यवहारोपाधिकी प्रबलता
व्यवहारोपाधिकी प्रबलता
यहाँ यह बात ध्यानमें रखने योग्य है कि राजचन्द्रजीकी धर्मका उद्धार करनेकी अत्यन्त तीव्र अभिलाषा होनेपर भी वे व्यवहारोपाधिमैं इतने अधिक फंसे हुए थे कि उन्हें उसमेंसे निकलना अत्यन्त कठिन हो रहा था। राजचन्द्र लिखते हैं-" ऐसे उपाधिप्रसंगमें तीर्थंकर जैसे पुरुषके विषयमें भी का निर्णय करना हो तो कठिन हो जाय | तथा यदि भगवत्का न हो तो इस कालमें उस प्रकारके उपाधियोगमें धड़के उपर सिरका रहना भी कठिन हो जाय, ऐसा होते हुए भी बहुतबार देखा है और जिसने आत्मस्वरूप जान लिया ऐसे पुरुषका और इस संसारका मेल नहीं खाता, यही अधिक निश्चय
आ" वे अच्छी तरह समझते थे कि जबतक उनका गृहस्थावास है और व्यापार प्रवत्ति चाल है. तबतक जनसमुदायको उनकी प्रतीति होना अत्यंत दुर्लभ है, और फिर जीवोंको परमार्थ-प्राप्ति भी होना संभव नहीं । इस समय राजचन्द्रजीको बड़ी कठिन अवस्थाका अनुभव हो रहा था। एक ओर तो उनकी निर्ग्रन्थभावसे रहनेवाले चित्तकी व्यवहारमें यथोचित प्रवृत्ति न होती थी, और दूसरी ओर व्यवहारमें चित्त लगानेसे निग्रंथभावकी हानि होनेकी संभावना थी। अन्तर्द्वन्द
राजचन्द्रजीके इस अन्तर्द्वन्दको उन्हींके शब्दों में सुनिये:-" वैश्य-वेषसे और नियमावसे रहते हुए कोटाकोटि विचार हुआ करते हैं । वेष और उस वेषसंबंधी व्यवहारको देखकर लोकदृष्टि उस प्रकारसे माने यह ठीक है, और नियभावसे रहनेवाला चित्त उस व्यवहारसे प्रवृत्ति न कर सके यह भी सत्य है। इसलिये इस तरहसे दो प्रकारकी एक स्थितिपूर्वक बर्ताव नहीं किया जा सकता। क्योंकि प्रथम प्रकारसे रहते हुए नियमावसे उदास रहना पड़े तो ही यथार्थ व्यवहारकी रक्षा हो सकती है, और यदि नियमावसे रहे तो फिर वह व्यवहार चाहे जैसा हो उसकी उपेक्षा करनी ही योग्य है। यदि उपेक्षा न की जाय तो निग्रंथभावकी हानि हुए बिना न रहे।
__उस व्यवहारके त्याग किये बिना, अथवा अत्यंत अल्प किये बिना यथार्थ नियता नहीं रहती, और उदयरूप होनेसे व्यवहारका त्याग नहीं किया जाता। इस सब विभाव-योगके दूर हुए बिना हमारा चित्त दूसरे किसी उपायसे संतोष प्राप्त करे, ऐसा नहीं लगता।"
हृदयमंथनकी इस अवस्थामें राजचन्द्रजीको कुछ निश्चित मार्ग नहीं सूझ पाता । वे अनेक विकल्प उठाते हुए लिखते हैं:
"तो क्या मौनदशा धारण करनी चाहिये । व्यवहारका उदय ऐसा है कि यदि वह धारण किया जाय तो वह लोगोंको कषायका निमित्त हो, और इस तरह व्यवहारकी प्रवृत्ति नहीं होती।
तब क्या उस व्यवहारको छोड़ देना चाहिये । यह भी विचार करनेसे कठिन मालूम होता है। क्योंकि उस तरहकी कुछ स्थितिके वेदन करनेका चित्त रहा करता है। फिर वह चाहे शिथिलतासे हो, परेच्छासे हो, अथवा जैसा सर्वशने देखा है उससे हो।ऐसा होनेपर भी अल्प कालमें व्यवहारके घटाने में ही चित्त है । वह व्यवहार किस प्रकारसे घटाया जा सकेगा !
१३८०-३५३-२६.
२ वे लिखते हैं जिससे लोगोंको अंदेशा हो इस तरहके बाह्य व्यवहारका उदय है । वैसे व्यवहारके साथ बलवान निथ पुरुषके समान उपदेश करना यह मार्गके विरोध करनेके समान है । विश्वाससे समझना कि इसे व्यवहारका बंधन उदयकालमें न होता तो यह दूसरे बहुतसे मनुष्यों को अपूर्व हितको देनेवाला होता । प्रवृत्तिके कारण कुछ असमता नहीं, परन्तु निवृत्ति होती तो दूसरी आत्माओंको मार्ग मिलनेका कारण होता.'
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