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________________ पत्र ४९९, ५००, ५०१] विविध पत्र आदि संग्रह-२८याँ वर्ष ४९९ बम्बई, चैत्र १९५१ विषय आदि इच्छित पदार्थ भोगकर उनसे निवृत्त होनेकी इच्छा रखना और उस क्रमसे प्रवृत्ति करनेसे आगे चलकर उस विषय-मूर्छाका उत्पन्न होना संभव न हो, यह होना कठिन है; क्योंकि ज्ञान दशाके बिना विषयकी निर्मूलता होना संभव नहीं । विषयोंका केवल उदय भोगनेसे ही नाश होना सम्भव है, परन्तु यदि ज्ञान-दशा न हो तो विषय-सेवन करनेमें उत्सुक परिणाम हुए बिना न रहे और उससे पराजित होनेके बदले उल्टी विषयकी वृद्धि ही होना संभव है। जिन्हें ज्ञान-दशा है, वैसे पुरुष विषयाकांक्षासे अथवा विषयका अनुभव करके उससे विरक्त होनेकी इच्छासे उसमें प्रवृत्ति नहीं करते, और यदि वे इस तरह प्रवृत्ति करनेके लिये उद्यत हों तो ज्ञानपर भी आवरण आ जाना संभव है। मात्र प्रारब्धसंबंधी उदय हो, अर्थात् छूटा न जा सके, उसीसे ज्ञानी-पुरुषकी भोग-प्रवृत्ति है । वह भी पूर्व और पश्चात्में पश्चात्तापयुक्त और मंदतम परिणामयुक्त होती है। सामान्य मुमुक्षु जीवको वैराग्यके उद्भवके लिये विषयका आराधन करनेसे तो प्रायः करके बंधनमें पड़ जाना ही संभव है, क्योंकि ज्ञानी-पुरुष भी उस प्रसंगको बहुत मुश्किलसे जीत सका है; तो फिर जिसकी केवल विचार-दशा है ऐसे पुरुषकी शक्ति नहीं है कि वह उस विषयको इस प्रकारसे जीत सके। जिस जीवको मोहनीय कर्मरूपी कषायका त्याग करना हो, और 'जब वह उसका एकदम त्याग करनेका विचार करेगा तब कर सकेगा' इस प्रकारके विश्वासके ऊपर रहकर, जो उसका क्रम क्रमसे त्याग करनेका विचार नहीं करता, तो वह एकदम त्याग करनेका प्रसंग आनेपर मोहनीय कर्मके बलके सामने नहीं टिक सकता । कारण कि कर्मरूप शत्रुको धीरे धीरे निर्बल किये बिना उसे निकाल बाहर करना एकदम असंभव होता है । आत्माकी निर्बलताके कारण उसके ऊपर मोहका प्राबल्य रहत, हैं । उसका जोर कम करनेके लिये यदि आत्मा प्रयत्न करे तो एक बारगी ही उसके ऊपर जय प्राप्त कर लेनेकी धारणामें वह ठगा जाती है । जबतक मोह-वृत्ति लड़नेके लिये सामने नहीं आती तभीतक मोहके वश होकर आत्मा अपनी बलवत्ता समझती है, परन्तु उस प्रकारकी कसौटीका अवसर उपस्थित होनेपर आत्माको अपनी कायरता समझमें आ जाती है। इसलिये जैसे बने तैसे पाँचों इन्द्रियोंको वशमें लाना चाहिये । उसमें भी मुख्यतया उपस्थ इन्द्रियको वशमें लाना चाहिये । इसी प्रकार अनुक्रमसे दूसरी इन्द्रियों -(अपूर्ण) ५०१ सं. १९५१ वैशाख सुदी ५ सोमवारके दिन-सायंकालसे प्रत्याख्यान. सं. १९५१ वैशाख सुदी १४ भौमवारके दिन.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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