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________________ पंत्र ४५०, ४५१, ४५२] विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष ४१७ ४५० बम्बई, कार्तिक सुदी ३ बुध. १९५१ श्रीकृष्ण चाहे जिस गतिको प्राप्त हुए हों, परन्तु विचार करनेसे स्पष्ट मालूम होता है कि वे आत्मभावमें उपयोगसहित थे। जिन श्रीकृष्णने कांचनकी द्वारिकाका, छप्पन करोड़ यादवोंके समूहका और पंचविषयके आकर्षित करनेवाले कारणोंके संयोगमें स्वामीपनेका भोग किया, उन कृष्णने जब देहको छोड़ा, तब उनकी क्या दशा थी, वह विचार करने योग्य है । और उसे विचारकर इस जीवको ज़रूर आकुलतासे मुक्त करना योग्य है । कुलका संहार हो गया है, द्वारिका भस्म हो गई है, उसके शोकसे विह्वल होकर वे अकेले वनमें भूमिके ऊपर सो रहे हैं । वहाँ जराकुमारने जब बाण मारा, उस समय भी जिसने धीरजको रक्खा है, उस कृष्णकी दशा विचार करने योग्य है। ४५१ बम्बई, कार्तिक सुदी ४ गुरु. १९५१ मुमुक्षु जीवको दो प्रकारकी दशा रहती है:-एक विचार-दशा और दूसरी स्थितिप्रज्ञ-दशा। स्थितिप्रज्ञ-दशा, विचार-दशाके लगभग पूरी हो जानेपर अथवा सम्पूर्ण हो जानेपर प्रगट होती है । उस स्थितिप्रज्ञ-दशाकी प्राप्ति होना इस कालमें कठिन है; क्योंकि इस कालमें प्रधानतया आत्म-परिणामका व्याघातरूप ही संयोग रहता है, और उससे विचार-दशाका संयोग भी सद्गुरुके-सत्संगके अंतरायसे प्राप्त नहीं होता-ऐसे कालमें कृष्णदास विचार-दशाकी इच्छा करते हैं, यह विचार-दशा प्राप्त होनेका मुख्य कारण है । और वैसे जीवको भय, चिन्ता, पराभव आदि भावमें निज बुद्धि करना योग्य नहीं है । तो भी धीरजसे उन्हें समाधान होने देना, और चित्तका निर्भय रखना ही योग्य है। ४५२ बम्बई, कार्तिक सुदी ७, १९५१ मुमुक्षु जीवको अर्थात् विचारवान जीवको इस संसारमें अज्ञानके सिवाय दूसरा कोई भी भय नहीं होता। एक अज्ञानकी निवृत्तिकी इच्छा करनेरूप जो इच्छा है, उसके सिवाय विचारवान जीवको दूसरी कोई भी इच्छा नहीं होती, और पूर्व कर्मके बलसे कोई वैसा उदय हो तो भी विचारवानके चित्तमें 'संसार काराग्रह है, समस्त लोक दुःखसे पीड़ित है, भयसे आकुल है, राग-द्वेषके प्राप्त फलसे प्रज्वलित है' यह विचार निश्चयसे रहता है; और 'ज्ञान-प्राप्तिका कुछ अंतराय है, इसलिये वह कारामहरूप संसार मुझे भयका हेतु है, और मुझे लोकका समागम करना योग्य नहीं,' एक यही भय विचारवानको रखना योग्य है। महात्मा श्रीतीर्थकरने निम्रन्थको प्राप्त हुए परिषह सहन करनेका बारम्बार उपदेश दिया है । उस परिषहके स्वरूपका प्रतिपादन करते हुए अज्ञानपरिषह और दर्शनपरिषह इस प्रकार दो परिषहोंका प्रतिपादन किया है। अर्थात् किसी उदय-योगका प्राबल्य हो और सत्संग-सत्पुरुषका योग होनेपर भी जीवकी अज्ञानके कारणोंको दूर करनेमें हिम्मत न चल सकती हो, घबराहट पैदा हो जाती हो, तो. भी धीरज रखना चाहिये; सत्संग-सत्पुरुषके संयोगका विशेष विशेषरूपसे आराधन करना चाहिये
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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