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________________ पत्र ४३३] विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष ३९७ मानमें प्रायः करके चित्त उदासीन जैसा है, अथवा उस क्रममें चित्तको विशेष उदासीन किया हो, तो हो सकना संभव है। शब्द आदि विषयोंके प्रति कोई भी बलवान कारण अवरोधक हो, ऐसा भी मालूम नहीं होता। यद्यपि यह कहनेका प्रयोजन नहीं है कि उन विषयोंका सर्वथा क्षायिक भाव ही है, फिर भी उसमें अनेक रूपसे नीरसता भासित हो रही है । उदयसे भी कभी मंदरुचि उत्पन्न होती हो, तो वह भी विशेष अवस्था पानेके पहिले ही नाश हो जाती है, और उस मंद रुचिका वेदन करते हुए भी आत्मामें खेद ही रहता है; अर्थात् उस रुचिके आधारहीन होती जानेसे वह भी बलवान कारणरूप नहीं है । दूसरे और भी अनेक प्रभावक पुरुष हुए हैं, उनकी अपेक्षा किसी रीतिसे हममें विचार-दशा आदिका प्राबल्य ही होगा। ऐसा लगता है कि उस प्रकारके प्रभावक पुरुष आज मालूम नहीं होते; और मात्र उपदेशकरूपसे नाम जैसी प्रभावनासे प्रवर्तन करते हुए कोई कोई ही देखने-सुनने में आते हैं । उनकी विद्यमानताके कारण हमें कोई अवरोधकता हो, ऐसा भी मालूम नहीं होता। . ४३३ बम्बई, भाद्र. सुदी ३ रवि. १९५० जीवको ज्ञानी-पुरुषकी पहिचान होनेपर, तथाप्रकारसे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभका शिथिल होना योग्य है, जिसके होनेपर अनुकमसे उसका क्षय होता है । ज्यों ज्यों जीवको सत्पुरुषकी पहिचान होती है, त्यों त्यों मताभिग्रह, दुराग्रह आदि भाव शिथिल पड़ने लगते हैं, और अपने दोषोंको देखनेकी ओर चित्त फिर जाता है, विकथा आदि भावमें नीरसता लगने लगती है, अथवा जुगुप्सा उत्पन्न होती है । जीवको अनित्य आदि भावनाके चिंतन करनेके प्रति, बल-वर्यिके स्फुरित होनेमें जिस प्रकारसे ज्ञानी-पुरुषके पास उपदेश सुना है, उससे भी विशेष बलवान परिणामसे वह पंचविषय आदिमें अनित्य आदि भावको दृढ़ करता है। ___अर्थात् सत्पुरुषके मिलनेपर, यह सत्पुरुष है, इतना जानकर, सत्पुरुषके जाननेके पहिले जिस तरह आत्मा पंचविषय आदिमें आसक्त थी, उस तरह उसके पश्चात् आसक्त नहीं रहती, और अनुक्रमसे जिससे वह आसक्ति-भाव शिथिल पड़े, इस प्रकारके वैराग्यमें जीव प्रवेश करता है । अथवा सत्पुरुषका संयोग होनेके पश्चात् आत्मज्ञान कोई दुर्लभ नहीं है, फिर भी सत्पुरुषमें-उसके वचनमें-उस वचनके आशयमें, जबतक प्रीति-भक्ति न हो तबतक जीवमें आत्म-विचार भी प्रगट होना योग्य नहीं; और सत्पुरुषका जीवको संयोग हुआ है, इस प्रकार ठीक ठीक जीवको भासित हुआ है, ऐसा कहना भी कठिन है। ___जीवको सत्पुरुषका संयोग मिलनेपर तो ऐसी भावना होती है कि अबतक मेरे जो प्रयत्न कल्याणके लिये थे, वे सब निष्फल थे-लक्षके बिना छोड़े हुए बाणकी तरह थे, परन्तु अब सत्पुरुषका अपूर्व संयोग मिला है, तो वह मेरे सब साधनोंके सफल होनेका हेतु है। लोक-प्रसंगमें रहकर अबतक जो निष्फल-लक्षरहित साधन किये हैं, अब उस प्रकारसे सत्पुरुषके संयोगमें न करते हुए, जरूर अंतर-आत्मामें विचारकर हद परिणाम रखकर, जीवको इस संयोगमें-वचनमें जागृत होना योग्य
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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