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________________ ३९० भीमद् राजचन्द्र [पत्र ४२२ करे तो अभी भी उस ही तरह अनंत कालतक परिभ्रमण चलता चला जाय। अग्निके एक स्फुलिंगमें इतनी सामर्थ्य है कि वह समस्त लोकको जला सकता है, परन्तु उसे जैसा जैसा संयोग मिलता है, वैसे वैसे उसका गुण फलयुक्त होता है । उसी तरह अज्ञान-परिणाममें जीव अनादि कालसे भटकता रहा है; तथा संभव है कि अभी अनंत कालतक भी चौदह राजू लोकमें प्रत्येक प्रदेशमें उस परिणामसे अनंत जन्म-मरण होना संभव हो। फिर भी जिस तरह स्फुलिंगकी अग्नि संयोगके आधीन है, उसी तरह अज्ञानके कर्म परिणामकी भी कोई प्रकृति होती है । उत्कृष्टसे उत्कृष्ट यदि एक जीवको मोहनीय कर्मका बंध हो तो सत्तर कोडाकोडीतक हो सकता है, ऐसा जिनभगवान्ने कहा है। उसका हेतु स्पष्ट है कि यदि जीवको अनंत कालका बंधन होता हो तो फिर जीवको मोक्ष ही न हो। यह बंध यदि अभी निवृत्त न हुआ हो, परन्तु लगभग निवृत्त होनेके लिये आया हो, तो कदाचित् उस प्रकारकी दूसरी स्थितिका बंध होना संभव है, परन्तु इस प्रकारके मोहनीय कर्मको-जिसकी काल-स्थिति ऊपर कही है-एक समयमें अधिक बाँधना संभव नहीं होता। अनुक्रमसे अभीतक उस कर्मसे निवृत्त होनेके पहिले दूसरा उसी स्थितिका कर्म बाँधे, तथा दूसरेके निवृत्त होनेके पहिले तीसरा कर्म बाँधे; परन्तु दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवाँ, छट्ठा इस तरह सबके सब कर्म एक मोहनीय कर्मके संबंधसे उसी स्थितिको बाँधते रहें, ऐसा नहीं होता। क्योंके जीवको इतना अवकाश नहीं है । इस प्रकार मोहनीय कर्मकी स्थिति है। तथा आयु कर्मकी स्थिति श्रीजिनभगवान्ने इस तरह कही है कि एक जीव एक देहमें रहते हुए, उस देहकी जितनी आयु है, उसके तीन भागोंमेंसे दो भाग व्यतीत हो जानेपर आगामी भवकी आयु बाँधता है, उससे पहिले नहीं बाँधता । तथा एक भवमें आगामी कालके दो भवोंकी आयु नहीं बाँधता, ऐसी स्थिति है। अर्थात् जीवको अज्ञान-भावसे कर्म-संबंध चला आ रहा है। फिर भी उन उन कर्मोंकी स्थितिके कितनी भी विडंबनारूप होनेपर, अनंत दुःख और भवका हेतु होनेपर भी, जिस जिसमें जीव उससे निवृत्त हो, उतने अमुक प्रकारको निकाल देनेपर सब अवकाश ही अवकाश है। इस बातको जिनभगवान्ने बहुत सूक्ष्मरूपसे कहा है, उसका विचार करना योग्य है। जिसमें जीवको मोक्षका अवकाश कहकर कर्मबंध कहा है । यह बात आपको संक्षेपमें लिखी है। उसे फिर फिरसे विचार करनेसे कुछ समाधान होगा, और क्रमसे अथवा समागमसे उसका एकदम समाधान हो जायगा। . जो सत्संग है वह कामके जलानेका प्रबल उपाय है। सब ज्ञानी-पुरुषोंने कामके जीतनेको अत्यंत कठिन कहा है, यह सर्वथा सिद्ध है; और ज्यों ज्यों ज्ञानकि वचनका अवगाहन होता है त्यों त्यों कुछ कुछ करके पीछे हटनेसे अनुक्रमसे जीवका वीर्य प्रबल होकर जीवसे कामकी सामर्थ्यको नाश कराता है। जीवने ज्ञानी-पुरुषके वचन सुनकर कामका स्वरूप ही नहीं जाना; और यदि जाना होता तो उसकी उस विषयमें सर्वथा नीरसता हो गई होती। (२) नमो जिणाणं जिदमवाणं जिसकी प्रत्यक्ष दशा ही बोधरूप है, उस महान् पुरुषको धन्य है। . जिस मतभेदसे यह जीव प्रस्त हो रहा है, वही मतभेद ही उसके स्वरूपका मुख्य आवरण है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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