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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ४२१ 'आत्मस्वरूपमें जगत् नहीं है,' यह बात वेदांतमें कही है, अथवा ऐसा योग्य है । परन्तु 'बाह्य जगत् नहीं है,' यह अर्थ केवल जीवको उपशम होनेके लिये ही मानने योग्य गिना जा सकता है। इस प्रकार इन तीन प्रश्नोंका संक्षिप्त समाधान लिखा है, इसका विशेषरूपसे विचार करना। कुछ विशेष समाधान करनेकी इच्छा हो तो लिखना। जिस तरह वैराग्य-उपशमकी वृद्धि हो, हालमें तो उसी तरह करना चाहिये । जैनदर्शन जिसे सर्वप्रकाशकता कहता है, वेदान्त उसे व्यापकता कहता है । ४२१ बम्बई, आषाढ़ सुदी ६ रवि. १९५० बंध-वृत्तियोंका उपशम करनेके लिये और निवृत्ति करनेके लिये जीवको अभ्यास-सतत अभ्यास करना चाहिये; क्योंकि बिना विचारके, बिना प्रयासके, उन वृत्तियोंका उपशम अथवा निवृत्ति किस प्रकारसे हो सकती है ! कारणके बिना कोई कार्य होना संभव नहीं है, तो फिर यदि इस जीवने उन वृत्तियोंके उपशम अथवा निवृत्ति करनेका कोई उपाय न किया हो, अर्थात् उसका अभाव न हो तो यह बात स्पष्टरूपसे संभव है । बहुत बार पूर्वकालमें वृत्तियोंके उपशमका तथा निवृत्तिका जीवने अभिमान किया है, परन्तु उस प्रकारका कोई साधन नहीं किया, और अबतक भी उस क्रममें जीव अपना कोई ठिकाना नहीं करता अर्थात् अभी भी उसे उस अभ्यासमें कोई रस दिखाई नहीं देता। तथा कड़वास मालूम होनेपर भी उस कड़वासके ऊपर पैर रखकर, यह जीव उपशम-निवृत्तिमें प्रवेश नहीं करता । इस बातका इस दुष्ट-परिणामी जीवको बारम्बार विचार करना चाहिये यह बात किसी भी तरह विस्मरण करने योग्य नहीं। जिस प्रकारसे पुत्र आदि संपत्तिमें इस जीवको मोह होता है, वह प्रकार सर्वथा नीरस और निंदनीय है । यदि जीव जरा भी विचार करे तो स्पष्ट मालूम हो जाय कि इस जीवने किसीमें पुत्रपनेकी भावना करके अपने अहित करने में कमी नहीं रक्खी, और किसीमें पिताभाव मानकर भी वैसा ही किया है, और कोई जीव अभीतक तो पिता-पुत्र हो सका हो, यह देखा नहीं गया । सब कहते ही कहते आते हैं कि यह इसका पुत्र है, यह इसका पिता है, परन्तु विचार करनेसे स्पष्ट मालूम होता है कि यह बात किसी भी कालमें संभव नहीं। अनुत्पन्न इस जीवको पुत्ररूपसे मानना, अथवा उसे मनवानेकी इच्छा रहना, यह सब जीवकी मूढ़ता है; और वह मूढ़ता किसी भी प्रकारसे सत्संगकी इच्छावाले जीवको करना योग्य नहीं है। ____ जो तुमने मोह आदिके भेदके विषयमें लिखा, वह दोनोंको भ्रमणका हेतु है-अत्यंत विडम्बनाका हेतु है । ज्ञानी-पुरुष भी यदि इस तरह आचरण करे तो वह ज्ञानके ऊपर पाँव रखने जैसा है, और वह सब प्रकारसे अज्ञान-निद्राका ही हेतु है। इस भेदका.विचार करके दोनोंको सरल भाव करना चाहिये । यह बात अल्पकालमें ही जागृत करने योग्य है। जितना बने उतना तुम अथवा दूसरे तुम्हारे सत्संगियोंको. निवृत्तिका अवकाश लेना चाहिये,. वही जीवको हितकारी है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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