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________________ भीमद् राजवन्द्र [पत्र ४१५ करनेकी भूमिका प्रमाण कहा है, वहाँ चारों दिशाओंमें अमुक नगरतककी मर्यादा बताई है, फिर भी उसके पश्चात् अनार्य-क्षेत्रमें भी ज्ञान, दर्शन और संयमकी वृद्धिके लिये विचरण करनेका अपवाद बताया गया है । क्योंकि आर्य-भूमिमें यदि किसी योगवश ज्ञानी-पुरुषका समीपमें विचरना न हो और प्रारब्ध-योगसे ज्ञानी-पुरुषका अनार्य-भूमिमें ही विचरना हो, तो वहाँ जानेमें भगवान्की प्रतिपादित आज्ञा भंग नहीं होती। ___ इसी प्रकार यदि साधु पत्र-समाचार आदिका समागम रक्खे तो प्रतिबंधकी वृद्धि हो, इस कारण भगवान्ने इसका निषेध किया है। परन्तु वह निषेध ज्ञानी-पुरुषके साथ किसी उस प्रकारके पत्र-समाचार करनेमें अपवादरूप मालूम होता है; क्योंकि निष्कामरूपसे ज्ञानकी आराधनाके लिये ही ज्ञानीके प्रति पत्रसमाचारका व्यवहार होता है। इसमें दूसरा कोई संसार-प्रयोजनका उद्देश नहीं, बल्कि उलटा संसार-प्रयोजन दूर होनेका ही उद्देश है; तथा संसारका दूर करना इतना ही तो परमार्थ है। जिससे ज्ञानी-पुरुषकी अनुज्ञासे अथवा किसी सत्संगी जनकी अनुज्ञासे पत्र-समाचारका कारण उपस्थित हो तो वह संयमके विरुद्ध ही है, यह नहीं कहा जा सकता । फिर भी तुम्हें साधुने जो प्रत्याख्यान दिया था, उसके भंग होनेका दोष तुम्हारे ही सिरपर आरोपण करना योग्य है । यहाँ पञ्चक्खाणके स्वरूपका विचार नहीं करना है, परन्तु तुमने उन्हें जो प्रगट विश्वास दिलाया है, उसके भंग करनेका क्या हेतु है ! यदि उस पञ्चक्खाणके लेने में तुम्हारा यथायोग्य चित्त नहीं था, तो तुम्हें वह लेना ही योग्य न था; और यदि किसी लोक-दबावसे वैसा हुआ तो फिर उसका भंग करना योग्य नहीं; और यदि भंग करनेका जो परिणाम है वह भंग न करनेकी अपेक्षा आत्माका विशेष हित करनेवाला हो, तो भी उसे स्वेच्छासे भंग करना योग्य नहीं। क्योंकि जीव राग-द्वेष अथवा अज्ञानसे सहज ही अपराधी होता है; उसका विचार किया हुआ हिताहित विचार बहुतबार विपर्यय होता है । इस कारण तुमने जिस प्रकारसे उस पञ्चक्खाणका भंग किया है, वह अपराधके योग्य है; और उसका प्रायश्चित्त किसी भी तरह लेना योग्य है । परन्तु किसी तरहकी संसार-बुद्धिसे यह कार्य नहीं हुआ, और संसार-कार्यके प्रसंगसे पत्र-समाचारके व्यवहार करनेकी मेरी इच्छा नहीं है, तथा यह जो कुछ पत्र आदिका लिखना हुआ है, वह मात्र किसी जीवके कल्याणकी बातके विषयमें ही हुआ है । और यदि वह न किया गया होता तो वह एक प्रकारसे कल्याणरूप ही था परन्तु दूसरी प्रकारसे चित्तकी व्यग्रता उत्पन्न होकर अंतरमें क्लेश होता था, इसलिये जिसमें कुछ संसार-प्रयोजन नहीं, किसी तरहकी दूसरी वॉछा नहीं-केवल जीवके हितका ही प्रसंग है-ऐसा समझकर इसका लिखना हुआ है। महाराजके द्वारा दिया हुआ पञ्चक्खाण भी मेरे हितके लिये था, जिससे मैं किसी संसारी प्रयोजनमें न पड़ जाऊँ और उसके लिये उनका उपकार था। परन्तु मैंने सांसारिक प्रयोजनसे यह कार्य नहीं किया है आपके संघाड़े प्रतिबंधको तोड़नेके लिये यह कार्य नहीं किया है। तो भी यह एक प्रकारसे मेरी भूल है, अब उसे अल्प साधारण प्रायश्चित्त देकर क्षमा करना योग्य है।' पर्दूषण आदि पर्वमें साधु लोग श्रावकसे श्रावकके नामसे पत्र लिखवाते हैं, उसके सिवाय किसी दूसरी तरहसे अब प्रवृत्ति न की जाय, और ज्ञान-चर्चा लिखी जाय तो भी बाधा नहीं है"-इत्यादि भाव लिखा है। .. तुम भी उसे तथा इस पत्रको विचारकर जैसे क्लेश उत्पन्न न हो वैसे करना । किसी भी..
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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