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________________ भीमद् राजचन्द्र [पत्र ४१४ प्रयोजनके लिये, महात्मा पुरुषोंकी आज्ञासे अथवा केवल जीवके कल्याणके उद्देश्यसे ही, उसका किसी पात्रके लिये उपयोग बताया है, ऐसा समझना चाहिये । नित्यप्रति और साधारण प्रसंगमें पत्र-समाचार आदि व्यवहार करना योग्य नहीं है । बानी-पुरुषके प्रति उसकी आज्ञासे ही नित्यप्रति पत्र आदि व्यवहार करना ठीक है, परन्तु दूसरे लौकिक जीवके प्रयोजनके लिये तो वह सर्वथा निषिद्ध ही मालूम होता है । फिर काल ऐसा आ गया है कि जिसमें इस तरह कहनेसे भी विषम परिणाम आना संभव है । लोकमार्गमें प्रवृत्ति करनेवाले साधु वगैरहके मनमें यह व्यवहार-मार्गका नाश करनेवाला भासमान होना संभव है । तथा इस मार्गके प्रतिपादन करनेसे अनुक्रमसे बिना कारण ही पत्र-समाचार आदिका चालू होना संभव है, जिससे साधारण द्रव्य-त्यागकी भी हिंसा होने लगे। यह जानकर इस व्यवहारको प्रायः श्री........से भी नहीं करना चाहिये; क्योंकि वैसा करनेसे भी व्यवसायका बढ़ना ही संभव है । यदि तुम्हें सर्व पञ्चक्खाण हो, तो फिर जो पत्र न लिखनेकां साधुने पञ्चक्खाण दिया है, वह नहीं दिया जा सकता; परन्तु यदि दिया हो तो भी हानि नहीं समझनी चाहिये । वह पञ्चक्खाण भी यदि ज्ञानी-पुरुषकी वाणीसे रूपांतरित हुआ होता तो हानि न थी, परन्तु वह जो साधारणरूपसे रूपांतरित हुआ है, वह योग्य नहीं हुआ। यहाँ मूल-स्वाभाविक-पञ्चक्खाणकी व्याख्या करनेका अवसर नहीं है; लोक-पञ्चक्खाणकी बातका ही अवसर है, परन्तु उसे भी साधारणतया अपनी इच्छासे तोड़ डालना योग्य नहीं-इस समय तो इस प्रकारसेही दृढ़ विचार रखना चाहिये। जब गुणोंके प्रगट होनेके साधनमें विरोध होता हो, तब उस पञ्चक्खाणको ज्ञानी-पुरुषकी वाणीसे अथवा मुमुक्षु जीवके समागमसे सहज स्वरूपमें फेरफार करके रास्तेपर लाना चाहिये, क्योंकि बिना कारणके लोगोंमें शंका पैदा होने देनेकी कोई बात करना योग्य नहीं है। वह पामर जीव दूसरे जीवको बिना कारण ही अहितकर होता है-इत्यादि बहुतसे कारण समझकर जहाँतक बने पत्र आदि व्यवहारका कम करना ही योग्य है। हमारे प्रति कदाचित् वैसा व्यवहार करना तुम्हें हितकर है, इसलिये करना योग्य मालूम हो तो उस पत्रको भी श्री""""जैसे किसी सत्संगीसे बँचवाकर ही भेजना, जिससे 'ज्ञान-चर्चाके सिवाय इसमें कोई दूसरी बात नहीं,' यह उनकी साक्षी तुम्हारी आत्माको दूसरी प्रकारके पत्र-व्यवहारको करनेसे रोकनेके लिये संभव हो । मेरे विचारके अनुसार इस बातमें श्री......."विरोध न समझें । कदाचित् उन्हें विरोध मालूम होता हो तो किसी प्रसंगपर हम उनकी इस शंकाको निवृत्त कर देंगे, फिर भी तुम्हें प्रायः विशेष पत्र-व्यवहार करना योग्य नहीं। इस लक्षको न चूकना। प्रायः शब्दका अर्थ केवल इतना ही है, जिससे हितकारी प्रसंगमें पत्रका जो कारण बताया गया है, उसमें बाधा न आये। विशेष पत्र-व्यवहार करनेसे यदि वह ज्ञानरूप चर्चा होगी तो भी लोकव्यवहारमें बहुत संदेहका कारण होगी। केवल जिस तरह प्रसंग प्रसंगपर जो आरम-हितार्थके लिये हो उसका विचारना और उसकी ही चिंता करनी योग्य है। हमारे प्रति किसी ज्ञान-प्रश्नके लिये पत्र लिखनेकी यदि तुम्हारी इच्छा हो तो वह श्री..........."से पूंछकर ही लिखना, जिससे तुम्हें गुण उत्पन्न होनेमें कम बाधा उपस्थित हो।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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