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________________ भीमद् राजचन्द्र [पत्र ४१४ ४१४ बम्बई, वैशाख वदी ७, रवि. १९५० ..... प्रायः जिनागममें 'सर्वविरति' साधुको पत्र-समाचार आदि लिखनेकी आज्ञा नहीं है, और यदि है वैसी सर्वविरति भूमिकामें रहकर भी साधु पत्र-समाचार आदि लिखना चाहे तो वह अतिचार समझा * * जाय । इस तरह साधारणतया शास्त्रका उपदेश है, और वह मुख्य मार्ग तो योग्य ही मालूम होता है। फिर भी जिनागमकी रचना पूर्वापर अविरुद्ध मालूम होती है, और उस अविरोधकी रक्षाके लिये पत्रसमाचार आदिके लिखनेकी आज्ञा भी किसी प्रकारसे जिनागममें है। उसे तुम्हारे चित्तके समाधान होनेके लिये यहाँ संक्षेपसे लिखता हूँ। जिनभगवान्की जो जो आज्ञायें हैं वे सब आज्ञायें, जिस तरह सर्व प्राणी अर्थात् जिनकी आत्माके कल्याणके लिये कुछ इच्छा है उन सबको, वह कल्याण प्राप्त हो सके, और जिससे वह कल्याण वृद्धिंगत हो, तथा जिस तरह उस कल्याणकी रक्षा की जा सके, उस तरह की गई है। यदि जिनागममें कोई ऐसी आज्ञा कही हो कि वह आज्ञा अमुक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके संयोगसे न पल सकती हुई आत्माको बाधक होती हो तो वहाँ उस आज्ञाको गौण करके उसका निषेध करके-श्रीतीर्थकरने दूसरी आज्ञा की है। जिसने सर्वविरति की है ऐसे मुनिको सर्वविरति करनेके समयके अवसरपर " सव्वाई पाणाईवायं पञ्चक्खामि, सव्वाई मुसावायं पञ्चक्खामि, सवाई अदत्तादाणाई पञ्चक्खामि, सवाई मेहुणाई पञ्चक्खामि, सव्वाई परिग्गहाई पञ्चक्खामि " इस उद्देश्यके वचनोंको बोलनेके लिये कहा है । अर्थात् सर्व प्राणातिपातसे मैं निवृत्त होता हूँ, ''सर्व प्रकारके मृषावादसे मैं निवृत्त होता हूँ,' 'सर्व प्रकारके अदत्तादानसे मैं निवृत्त होता हूँ,' 'सर्व प्रकारके मैथुनसे मैं निवृत्त होता हूँ,' और 'सर्व प्रकारके परिग्रहसे मैं निवृत्त होता हूँ,' (सब प्रकारके रात्रि-भोजनसे तथा दूसरे उस उस तरहके कारणोंसे. मैं निवृत्त होता हूँ-इस प्रकार उसके साथ और भी बहुतसे त्यागके कारण समझने चाहिये ), ऐसे जो वचन कहे हैं, वे सर्वविरतिकी भूमिकाके लक्षण कहे हैं। फिर भी उन पाँच महाव्रतोंमें-मैथुनत्यागको छोड़कर-चार महाव्रतोंमें पीछेसे भगवान्ने दूसरी आज्ञा की है, जो आज्ञा यधपि प्रत्यक्षरूपसे. तो महाव्रतको कदाचित् बाधक मालूम हो, परन्तु ज्ञान-दृष्टि से देखनेसे तो वह पोषक ही है। उदाहरणके लिये ' मैं सब प्रकारके प्राणातिपातसे निवृत्त होता हूँ,' इस तरह पञ्चक्खाण होनेपर भी नदीको पार करने जैसे प्राणातिपातरूप प्रसंगकी आज्ञा करनी पड़ी है। जिस आज्ञाका, यदि लोकसमुदायका विशेष समागम करके, साधु आराधन करेगा, तो पंच महानतोंके निर्मूल होनेका समय आयगा-यह जानकर, भगवान्ने नदी पार करनेकी आज्ञा दी है। वह आज्ञा, प्रत्यक्ष प्राणातिपातरूप होनेपर भी पाँच महाव्रतकी रक्षाका अमूल्य हेतु होनेसे, प्राणातिपातकी निवृत्तिरूप ही है, क्योंकि पाँच महावतोंकी रक्षाका हेतुरूप जो कारण है वह प्राणातिपातकी निवृत्तिका ही हेतु है । यवपि प्राणातिपात होनेपर भी नदीके पार करनेकी अप्राणातिपातरूप मात्रा होती है, फिर भी 'सब प्रकारके प्राणातिपातसे निवृत्त होता हूँ' इस वाक्यको एक बार क्षति पहुँचती है। परन्तु यह क्षति फिरसे विचार करनेपर तो उसकी विशेष दताके लिये ही मालूम होती है । इसी तरह दूसरे व्रतोंके लिये भी है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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