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________________ पत्र ४०१, ४०२, ४०३] विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष ३६५ जीवोंको भी इस तरहके बहुतसे कर्म हैं, जो भोगनेपर ही निवृत्त होते हैं—अर्थात् वे प्रारब्ध जैसे होते हैं। परन्तु दोनोंमें इतना भेद है कि ज्ञानीकी प्रवृत्ति तो मात्र पूर्वोपार्जित कारणसे होती है, और दूसरोंकी प्रवृत्तिका उद्देश भविष्य-संसार है; इसलिये ज्ञानीका प्रारब्ध जुदा ही पड़ता है। इस प्रारब्धका यह निश्चय नहीं कि वह निवृत्तिरूपसे ही उदय आये । उदाहरणके लिये श्रीकृष्ण आदि ज्ञानी-पुरुषके प्रवृत्तिरूप प्रारब्ध होनेपर भी उनकी ज्ञान-दशा थी, जैसे गृहस्थावस्थामें श्रीतीर्थकर की थी। इस प्रारब्धका निवृत्त होना केवल भोगनेसे ही संभव होता है । ज्ञानी-पुरुषकी प्रारब्ध-स्थिति कुछ इस प्रकार की है कि जो उसका स्वरूप जाननेके लिये जीवोंको संदेहका हेतु हो, और उसके लिये ज्ञानी-पुरुष प्रायः करके जड़-मौन-दशा रखकर अपने ज्ञानीपनेको अस्पष्ट रखता है। फिर भी प्रारब्धके वशसे यदि वह दशा किसीके स्पष्ट जाननेमें आ जाय, तो फिर उसे उस ज्ञानीपुरुषका विचित्र प्रारब्ध संदेहका कारण नहीं होता । ४०१ बम्बई, फाल्गुन वदी १० शनि. १९५० श्रीशिक्षापत्र ग्रंथ बाँचने-विचारनेमें हालमें कोई बाधा नहीं है। जहाँ कोई शंकाका हेतु उपस्थित हो वहाँ विचार करना, अथवा कोई प्रश्न पूछने योग्य हो तो पूँछनेमें कोई प्रतिबंध नहीं है। सुदर्शन सेठ पुरुषत्वमें था, फिर भी वह रानीके समागममें व्याकुलतासे रहित था । अत्यंत आत्म-बलसे कामके उपशम करनेसे कामेन्द्रियमें अजागृतपना ही संभव होता है। और यदि उस समय रानीने कदाचित् उसकी देहका सहवास करनेकी इच्छा भी की होती, तो भी श्रीसुदर्शनमें कामकी जागृति देखनेमें न आती-ऐसा हमें लगता है। ४०२ बम्बई, फाल्गुन वदी ११ रवि. १९५० शिक्षापत्र ग्रंथमें मुख्य भक्तिका प्रयोजन है । भक्तिके आधाररूप विवेक, धैर्य और आश्रय इन तीन गुणोंकी उसमें विशेष पुष्टि की है। उसमें धैर्य और आश्रयका विशेष सम्यक्प्रकारसे प्रतिपादन किया है, जिनका विचार करके मुमुक्षु जीवको उन्हें अपना गुण बनाना चाहिये । ___ इसमें श्रीकृष्ण आदिके जो जो प्रसंग आते हैं, वे इस प्रकारके हैं कि वे शायद संदेहके हेतु हों, फिर भी उनमें श्रीकृष्णके स्वरूपको समझनेका फेर समझकर उपेक्षित रहना ही योग्य है । मुमुक्षुका प्रयोजन केवल हित-बुद्धिसे बाँचने-विचारनेका ही होता है । ४०३ बम्बई, फाल्गुन वदी ११ रवि. १९५० उपाधि दूर करनेके लिये दो प्रकारसे पुरुषार्थ हो सकता है:-एक तो किसी भी व्यापार आदि कार्यसे, और दूसरे विधा, मंत्र आदि साधनसे । यद्यपि इन दोनोंमें पहिले जीवको अंतरायके दूर होनेकी शक्यता होनी चाहिये । यदि पहिला बताया हुआ पुरुषार्थ किसी तरह बने तो उसे करनेमें
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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