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________________ पत्र ३९६, ३९७] विविध पत्र भादि संग्रह-२७वाँ वर्ष ३६३ अवकाश होना योग्य है । जहाँ सर्वथा अप्रमत्तता है, वहाँ आत्माके सिवाय दूसरे किसी भी भावका अवकाश नहीं रहता। यद्यपि तीर्थंकर आदि सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेनेके बाद किसी तरहकी देह-क्रिया सहित दिखाई देते हैं, परन्तु यदि आत्मा इस क्रियाका अवकाश प्राप्त करे तो ही वह उस क्रियाको कर सकती है। ज्ञान होनेके पश्चात् इस प्रकारकी कोई क्रिया नहीं हो सकती; और तो ही वहाँ सम्पूर्ण ज्ञान होना योग्य है; यह ज्ञानी पुरुषोंका सन्देहरहित निश्चय है-ऐसा हमें लगता है । जैसे ज्वर आदि रोगमें चित्तको कोई स्नेह नहीं होता, उसी तरह इन भावोंमें भी स्नेह नहीं रहता-लगभग स्पष्ट रूपसे नहीं रहता; और उस प्रकारके प्रतिबंधके रहितपनेका विचार हुआ करता है। ३९६ मोहमयी, माघ वदी ४ शुक्र १९५० तुम्हारा पत्र मिला है । उसके साथ जो प्रश्नोंकी सूची उतारकर भेजी है वह भी मिली है। उन प्रश्नोंमें जो विचार प्रगट किये हैं, वे पहिले विचार-भूमिकामें विचारने योग्य हैं। जिस पुरुषने वह ग्रंथ बनाया है, उसने वेदांत आदि शास्त्रके अमुक ग्रंथके अवलोकनके ऊपरसे ही वे प्रश्न लिखे हैं । इसमें कोई अत्यन्त आश्चर्यकी बात नहीं लिखी है। इन प्रश्नोंका तथा इस तरहके विचारोंका बहुत समय पहिले विचार किया था, और इस प्रकारके विचारोंका विचार करनेके लिये तुम्हें तथाको कहा था । तथा दूसरे उस प्रकारके मुमुक्षुको भी इस प्रकारके विचारोंके अवलोकन करनेके विषयमें कहा था, अथवा अब भी कहते हैं, जिन विचारोंके करनेसे अनुक्रमसे सत्-असत्का पूरा विवेक हो सके। हालमें सात-आठ दिनसे शरीर ज्वरसे ग्रस्त था, अब दो दिनसे ठीक है। जो कविता भेजी वह मिली है। उसमें आलापिकारूपमें तुम्हारा नाम बताया है, और कविता करनेमें जो कुछ विचक्षणता चाहिये, उसे दिखानेका विचार रक्खा है। कविता ठीक है। ___ कविताका कवितार्थके लिये आराधन करना योग्य नहीं—संसारार्थके लिये आराधन करना योग्य नहीं । यदि उसका प्रयोजन भगवान्के भजनके लिये-आत्मकल्याणके लिये-हो तो जीवको उस गुणकी क्षयोपशमताका फल मिलता है। जिस विद्यासे उपशम गुण प्रगट नहीं हुआ-विवेक नहीं आया, अथवा समाधि, नहीं हुई, उस विद्याके विषयमें श्रेष्ठ जीवको आग्रह करना योग्य नहीं है। . हालमें अब प्रायः करके मोतीकी खरीद बंद ही रक्खी है । जो विलायतमें हैं उनको भी कम क्रमसे बेच डालनेका विचार कर रखा है। यदि यह प्रसंग न होता तो उस प्रसंगमें उत्पन्न होनेवाली जंजाल और उसका उपशमन न होता । अब वह स्वसंवेदनरूपसे अनुभवमें आया है । वह भी एक प्रकारकी प्रारब्धकी निवृत्तिरूप है। ३९७ मोहमयी, माघ वदी ९ गुरु. १९५० यहाँके उपाधि-प्रसंगमें कुछ विशेष सहनशीलतासे रहना पड़े, इस प्रकारकी मौसम होनेके
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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