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________________ ३६१ पत्र३९०, ३९१, ३९२] विविध पत्र आदि संग्रह-२६वाँ वर्ष ३९० बम्बई, आसोज वदी १३ रवि. १९४९ आपके समयसारके कवित्तसहित दो पत्र मिले हैं। निराकार-साकार चेतनाविषयक कवित्तका ऐसा अर्थ नहीं है कि उसका मुखरससे कोई संबंध किया जा सके । उसे हम फिर लिखेंगे। सुद्धता विचारे ध्यांव, मुद्धतामें केलि करै, सुद्धतामें थिर है, अमृतधारा बरसै। इस कवितामें सुधारसका जो माहात्म्य कहा है, वह केवल एक विनसा ( सब प्रकारके अन्य परिणामसे रहित असंख्यात-प्रदेशी आत्मद्रव्य ) परिणामसे स्वरूपस्थ और अमृतरूप आत्माका वर्णन है। उसका परमार्थ यथार्थरूपसे हृदयगत है, जो अनुक्रमसे समझमें आयेगा। बम्बई, आसोज १९४९ जे अबुद्धा महाभागा वीरा असमत्तदंसिणो। असुद्धं तेसिं परकंतं सफलं होई समसो॥१॥ जे य बुद्धा महाभागा वीरा सम्मत्तदंसिणो। . सुद्धं तेर्सि परकंतं अफलं होइ सव्वसो ॥२॥ ऊपरकी गाथाओंमें जहाँ 'सफल' शब्द है वहाँ 'अफल' ठीक मालूम होता है, और जहाँ 'अफल' शब्द है वहाँ 'सफल' ठीक मालूम होता है; इसलिये क्या इसमें लेख-दोष रह गया है, या ये गाथायें ठीक हैं ? इस प्रश्नका समाधान यह है कि यहाँ लेख-दोष नहीं है । जहाँ सफल शब्द है वहाँ सफल ठीक है, और जहाँ अफल शब्द है वहाँ अफल ठीक है। मिथ्यादृष्टिकी क्रिया सफल है—फलसहित है-अर्थात् उसे पुण्य-पापका फल भोगना है । सम्यग्दृष्टिकी क्रिया अफल है-फलरहित है--उसे फल नहीं भोगना है-अर्थात् उसकी निर्जरा है । एककी (मिथ्यादृष्टिकी) क्रियाका संसारहेतुक सफलपना है, और दूसरेकी (सम्यग्दृष्टिकी) क्रियाका संसारहेतुक अफलपना है-ऐसा परमार्थ समझना चाहिये । ३९२ बम्बई, आसोज १९४९ (१) स्वरूप स्वभावमें है। वह ज्ञानीकी चरण-सेवाके बिना अनंत कालतक प्राप्त न हो, ऐसा कठिन भी है। हम और तुम हालमें प्रत्यक्षरूपसे तो वियोगमें रहा करते हैं । यह भी पूर्व-निबंधनके किसी महान् प्रतिबंधके उदयमें होने योग्य कारण है। (२) हे राम ! जिस अवसरपर जो प्राप्त हो जाय उसमें संतोषसे रहना, यह सत्पुरुषोंका कहा हुआ सनातन धर्म है, ऐसा वसिष्ठ कहते थे। (३) जो ईश्वरेच्छा होगी वह होगा । मनुष्यका काम केवल प्रयत्न करना ही है और उसीसे जो अपने प्रारब्धमें होगा वह मिल जायगा; इसलिये मनमें संकल्प-विकल्प नहीं करना चाहिये । निष्काम यथायोग्य. ४६
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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