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________________ - भीमद् राजबन्द्र [पत्र ३७७ होनेपर, उस प्रकारकी भावना करते हुए जीवको प्रायः निष्फल कर्मबंधन नहीं होता; और महाव्याधिकी उत्पत्तिके समय तो जीव देहके ममत्वका जरूर त्याग करके, ज्ञानी-पुरुषके मार्गका विचारपूर्वक आचरण करे, यह श्रेष्ठ उपाय है । यद्यपि देहका उस प्रकारका ममत्व त्याग करना अथवा उसका कम करना, यह महाकठिन बात है, फिर भी जिसका वैसा करनेका निश्चय है, वह जल्दी या देरमें कभी न कभी अवश्य सफल होता है। ___ जबतक देह आदिसे जीवको आत्मकल्याणका साधन करना बाकी रहा है, तबतक उस देहमें अपरिणामिक ममताका सेवन करना ही योग्य है; अर्थात् यदि इस देहका कोई उपचार करना पड़े, तो वह उपचार देहमें ममत्व करनेकी इच्छासे नहीं करना चाहिये, परन्तु जिससे उस देहसे ज्ञानी-पुरुषके मार्गका आराधन हो सके, इस प्रकार किसी तरह उसमें रहनेवाले लाभके लिये, और उसी प्रकारकी बुद्धिसे, उस देहकी व्याधिके उपचारमें प्रवृत्ति करनेमें बाधा नहीं है । जो कुछ ममता है वह अपरिणामिक ममता है, अर्थात् परिणाममें समता स्वरूप है। परन्तु उस देहकी प्रियताके लिये, सांसारिक साधनोंमें जो यह प्रधान भोगका हेतु है, उसका त्याग करना पड़ता है । इस प्रकार आर्तध्यानसे किसी प्रकारसे भी उस देहमें बुद्धि न करना, यह ज्ञानी-पुरुषोंके मार्गकी शिक्षा जानकर, आत्मकल्याणके उस प्रकारके प्रसंगमें लक्ष रखना योग्य है। श्रीतीर्थकर जैसोंने सब प्रकारसे ज्ञानीकी शरणमें बुद्धि रखकर निर्भयता और खेदरहित भावके सेवन करनेकी शिक्षा की है, और हम भी यही कहते हैं। किसी भी कारणसे इस संसारमें क्लेशित होना योग्य नहीं । अविचार और अज्ञान, यह सब क्लेशोंका, मोहका और कुगतिका कारण है। सद्विचार और आत्मज्ञान आत्मगतिका कारण है। उसका प्रथम साक्षात् उपाय, ज्ञानी-पुरुषकी आज्ञाका विचार करना ही मालूम होता है। ३७७ बम्बई, श्रावण सुदी ४ भौम. १९४९ ___ जब किसी सामान्य मुमुक्षु जीवका भी इस संसारके प्रसंगमें प्रवृत्तिसंबंधी वीर्य मंद पड़ जाता है तो हमें तत्संबंधी अधिक मंदता हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं मालूम होता । फिर भी किसी पूर्वकालमें प्रारब्धके उपार्जन करनेका इसी प्रकारका क्रम रहा होगा, जिससे कि उस प्रसंगमें प्रवृत्ति करना रहा करे, परन्तु वह किस प्रकार रहा करता है ? वह क्रम इस प्रकार रहा करता है कि जो कोई खास संसार-सुखकी इच्छायुक्त हो उसे भी उस तरह करना अनुकूल न आये । यद्यपि यह बात खेद करने योग्य नहीं, और हम उदासीनताका ही सेवन करते हैं, फिर भी उस कारणसे एक दूसरा खेद उत्पन्न होता है। वह यह कि सत्संग और निवृत्तिकी अप्रधानता रहा करती है; और जिसमें परम रुचि है, इस प्रकारके आत्मज्ञान और आत्मवार्ताको किसी भी प्रकारकी इच्छाके बिना कचित् त्याग जैसा ही रखना पड़ता है। आत्मज्ञानके वेदक होनेसे व्यग्रता नहीं होती परन्तु आत्म-वार्ताका वियोग व्यग्रता पैदा करता है। संसारकी ज्वाला देखकर चिंता नहीं करना । यदि चिंतामें समता रहे तो वह आत्मचिंतन जैसी ही है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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