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________________ ३४४ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३६७, ३६८ श्रीकृष्णके वचनके अनुसार मुमुक्षु जीवको वे सब प्रसंग, जिन प्रसंगोंके कारण आत्म-साधन सूझता है, सुखदायक ही मानने योग्य हैं। अमुक समयतक अनुकूल प्रसंगयुक्त संसारमें कदाचित् यदि सत्संगका संयोग हुआ हो, तो भी इस कालमें उससे वैराग्यका जैसा चाहिये वैसा वेदन होना कठिन है । परन्तु उसके बाद यदि कोई कोई प्रसंग प्रतिकूल ही प्रतिकूल बनता चला जाय तो उसके विचारसे-उसके पश्चात्तापसे-सत्संग हितकारक हो जाता है, यह जानकर जिस किसी प्रतिकूल प्रसंगकी प्राप्ति हो, उसे आत्म-साधनका कारणरूप मानकर समाधि रखकर जागृत रहना चाहिये । कल्पितभावमें किसी प्रकारसे भूले हुएके समान नहीं है। ३६७ बम्बई, वैशाख वदी ९, १९४९ श्रीमहावीरदेवसे गौतम आदि मुनिजन पूँछते थे कि हे पूज्य ! माहण श्रमण, भिक्षु और निग्रंथ इन शब्दोंका क्या अर्थ है, सो हमें कहिये । उसके उत्तरमें श्रीतीर्थकर इस अर्थको विस्तारसे कहते थे। वे अनुक्रमसे इन चारोंकी बहुत प्रकारकी वीतराग अवस्थाओंको विशेष-अति विशेषरूपसे कहते थे, और इस तरह शिष्य उस शब्दके अर्थको धारण करते थे। निग्रंथकी अनेक दशाओंको कहते समय निम्रन्थके तीर्थकर 'आत्मवादप्राप्त ' इस प्रकारका एक शब्द कहते थे । टीकाकार शीलांकाचार्य उस 'आत्मवादप्राप्त ' शब्दका अर्थ इस प्रकार कहते हैं" उपयोग जिसका लक्षण है, असंख्य-प्रदेशी, संकोच-विकासका भाजन, अपने किये हुए कर्मोका भोक्ता, व्यवस्थासे द्रव्य-पर्यायरूप, नित्य-अनित्य आदि अनंत धर्मात्मक ऐसी आत्माको जाननेवाला आत्मवादप्राप्त" है। ३६८ बम्बई, ज्येष्ठ सुदी ११ शुक्र. १९४९ सब परमार्थके साधनोंमें परम साधन सत्संग-सत्पुरुषके चरणके समीप निवास है। सब कालमें उसकी कठिनता है और इस प्रकारके विषम कालमें तो ज्ञानी पुरुषोंने उसकी अत्यंत ही कठिनता मानी है। ज्ञानी-पुरुषोंकी प्रवृत्ति, प्रवृत्ति जैसी नहीं होती । जैसे गरम पानीमें अग्निका मुख्य गुण नहीं कहा जा सकता, वैसे ही ज्ञानीकी प्रवृत्ति है, फिर भी ज्ञानी-पुरुष भी किसी प्रकारसे निवृत्तिकी ही इच्छा करता है । पूर्वकालमें आराधन किये हुए निवृत्तिके क्षेत्र, वन, उपवन, योग, समाधि और सत्संग आदि ज्ञानी-पुरुषको प्रवृत्तिमें होनेपर भी बारम्बार याद आ जाते हैं, फिर भी ज्ञानी उदय-प्राप्त प्रारब्धका ही अनुसरण करते हैं । सत्संगकी रुचि रहती है, उसका लक्ष रहता है, परन्तु वह समय यहाँ नियमित नहीं है। कल्याणविषयक जो जो प्रतिबंधरूप कारण हैं, उनका जीवको बारम्बार विचार करना योग्य है। उन सब कारणोंको बारम्बार विचार करके दूर करना योग्य है, और इस मार्गके अनुसरण किये बिना कल्याणकी प्राप्ति नहीं होती । मल, विक्षेप, और अज्ञान ये जीवके अनादिके तीन दोष हैं । ज्ञानी पुरुषोंके वचनकी प्राप्ति होनेपर, उसका यथायोग्य विचार करनेसे अज्ञानकी निवृत्ति होती है । उस
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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