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राजचन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय तीन थी कि जिस अर्थको अच्छे अच्छे मुनि और विद्वान् लोग नहीं समझ सकते थे, उसमें राजचन्द्रजीक प्रवेश अत्यंत सरलतासे हो जाता था । कहते हैं कि राजचन्द्रजीने सवा बरसके भीतर ही समस्त आगोंका अवलोकन कर लिया था। उनै बाल्यावस्थाम ही तस्वशानकी प्राति हुई थी। इस सम्बन्धमें एक जगह राजचन्द्रजीने स्वयं लिखा है
लघुवर्यथी अद्भुत थयो, तस्वशाननो बोष । एज सूचवे एम के, गति अगति कां शोध । जे संस्कार थवा घटे, अति अभ्यासे कांय । बिना परिश्रम ते थयो, भवशंका शी त्यांय ॥
-अर्थात् मुझे जो छोटीसी अवस्थासे तत्वज्ञानका बोध हुआ है, वही पुनर्जन्मकी सिद्धि करता है, फिर गति-आगति ( पुनर्जन्म) की शोधकी क्या आवश्यकता है? तथा जो संस्कार अत्यंत अभ्यास करनेके बाद उत्पन्न होते हैं, वे मुझे बिना किसी परिश्रमके ही हो गये हैं। फिर अब पुनर्जन्मकी क्या शंका है।
पुनर्जन्मकी सिद्धि राजचन्द्रजीने और भी बहुतसे प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणोंसे की है। वे इस संबंध लिखते हैं- 'पुनर्जन्म है-अवश्य है, इसके लिये मैं अनुभवसे हाँ कहनेमें अचल हुँ'- यह वाक्य पूर्वभवके किसी संयोगके स्मरण होते समय सिद्ध होनेसे लिखा है । जिसने पुनर्जन्म आदि भाव किये हैं, उस पदार्थको किसी प्रकारसे जानकर वह वाक्य लिखा गया है"। कहते हैं कि राजचन्द्र जब लगभग पाँच बरसके थे, तो उनके कुटुम्बमें साँप काटनेसे किसी गृहस्थकी मृत्यु हो गई । राजचन्द्रजीका उनपर बहुत प्रेम था। राजचन्द्र उनके मरण-समाचार सुनते ही घर दौड़े आये और घरके लोगोंसे पूँछने लगे कि 'मरी जq एटले शुं'-मर जाना किसे कहते हैं ? घरके लोगोंने समझा कि राजचन्द्र अभी बालक है, वह डर जायगा; इसलिये वे उन्हें इस बातको भुलानेका प्रयत्न करने लगे । पर राजचन्द्र न माने, और वे छिपकर स्मशानमें पहुंचे, तथा एक वृक्षपर छिपकर बैठ गये । राजचन्द्रजीने देखा कि कुटुम्बके सब लोग उस मृतक देहको जला रहे हैं । यह देखकर उनके आश्चर्यका ठिकाना न रहा । उनके हृदयमें एक प्रकारकी खलभलाहटसी मच गई, और इसी समय विचार करते करते राजचन्द्रजीका परदा हटा, और उन्हें पूर्वजन्मकी दृढ़ प्रतीति हुई। शतावधानके प्रयोग
राजचन्द्रजीकी स्मरणशक्ति इतनी तीव्र थी कि वे जो कुछ एक बार बाँच लेते उसे फिर मुश्किलसे ही भूलते थे। राजचन्द्र बहुत छोटी अवस्थासे ही अवधानके प्रयोग करने लगे थे। वे धीरे धीरे शतावधानतक पहुँच गये थे । संवत् १९४३ में, उनीस वर्षकी अवस्था में राजचन्द्रजीने बम्बईमें एक सार्वजनिक सभामें डाक्टर पिटर्सनके सभापतित्वमें, सौ अवधानों के प्रयोग बताकर बड़े बड़े लोगोंको आश्चर्यचकित किया था। शतावधानमें वे शतरंज खेलते जाना, मालाके दाने गिनते जाना, जोड़ घटा गुणा करते जाना, सोलह भाषाओंके जुदा जुदा क्रमसे उल्टे सीधे नंबरोंके साथ अक्षरों को याद रखकर वाक्य बनाते जाना, दो कोठोंमें लिखे हुऐ उल्टे सीधे अक्षरोंसे कविता करते जाना, आठ भिन्न भिन्न समस्याओंकी पूर्ति करते जाना इत्यादि सौ कामोको एक ही साथ
१५०-१६०-२१.
२ देखो ४०-१५२-२१ (यह पत्र राजचन्द्रजीने गुजरातके साक्षर स्वर्गीय मनसुखराम त्रिपाठीको लिखा था).
३ ३५०-३३३-२६.
४ कहा जाता है कि जिस समय राजचन्द्र जनागदका किला देखने गये थे, वहाँ भी उन्हें इसी तरहका अनुभव हुआ था। लोगों में ऐसी भी प्रसिद्धि है कि राजचन्द्र अपने पूर्वके ९०. भव जानते थे-श्रीयुत दामजी केशवजीके संग्रहमें श्रीमद्के संपर्कमें आये हुए एक मुमुक्षुके लिखे हुए राजचन्द्रजीके वृत्तांतके आधारसे.