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________________ ३४० श्रीमद राजचन्द्र [पत्र ३५८ प्रकारसे कहा है, जिसे सत्पुरुषसे जानकर, विचारकर, सत्कार करके जीव अपने स्वरूपमें स्थिति करे । तीर्थकर आदि ज्ञानीने प्रत्येक पदार्थको वक्तव्य और अवक्तव्य इस तरह दो प्रकारके व्यवहार-धर्मयुक्त माना है ।जो अवक्तव्यरूपसे है वह यहाँ अवक्तव्य ही है ।जो वक्तव्यरूपसे जीवका धर्म है, उसे तीर्थकर आदि सब प्रकारसे कहनेके लिये समर्थ हैं, और वह जीवके विशुद्ध परिणामसे अथवा सत्पुरुषसे जानने योग्य केवल जीवका धर्म ही है; और वही धर्म उस लक्षणसे अमुक मुख्य प्रकारसे इस दोहेमें कहा गया है । वह व्याख्या परमार्थक अत्यंत अभ्याससे अत्यंत स्पष्टरूपसे समझमें आती है, और उसके समझ लेनेपर अत्यंत आत्मस्वरूप भी प्रगट होता है, तो भी यथावकाश यहाँ उसका अर्थ लिखा है। समता रमता उरधता, ज्ञायकता सुखभास: वेदकता चैतन्यता, ए सब जीवविलास । श्रीतीर्थकर ऐसा कहते हैं कि इस जगत्में इस जीव नामके पदार्थको चाहे जिस प्रकारसे कहा हो, परन्तु यदि वह प्रकार उसकी स्थितिके विषयमें हो, तो उसमें हमारी उदासीनता है। जिस प्रकार निराबाधरूपसे उस जीव नामके पदार्थको हमने जाना है, उस प्रकारसे उसे हमने प्रगटरूपसे कहा है। जिस लक्षणसे उसे हमने कहा है, वह सब प्रकारसे निर्बाध ही कहा है। हमने उस आत्माको इस प्रकार जाना है, देखा है, स्पष्ट अनुभव किया है, और प्रगटरूपसे हम वही आत्मा हैं। वह आत्मा 'समता' लक्षणसे युक्त है । वर्तमान समयमें जो उस आत्माकी असंख्य-प्रदेशात्मक चैतन्यस्थिति है, वह सब पहिलेके एक, दो, तीन, चार, दस, संख्यात, असंख्यात और अनंत समयमें थी; वर्तमानमें है; और भविष्यमें भी उसकी स्थिति उसी प्रकारसे होगी। उसके असंख्य-प्रदेशात्मकता, चैतन्यता, अरूपित्व इत्यादि समस्त स्वभाव कभी भी छूटने योग्य नहीं हैं । जिसमें ऐसा · समपना-समता' है वह जीव है। ____पशु, पक्षी, मनुष्य आदिकी देहमें और वृक्ष आदिमें जो कुछ रमणीयता दिखाई देती है, अथवा जिससे वह सब प्रगट स्फूर्तियुक्त मालूम होता है-प्रगट सुंदरतायुक्त मालूम होता है-वह 'रमणीयपना-रमता' जिसका लक्षण है, वह जीव नामक पदार्थ है । जिसकी मौजूदगीके बिना समस्त जगत् शून्यवत् मालूम होता है, जिसमें ऐसी रम्यता है-वह लक्षण जिसमें घटता है—वह जीव है। __ कोई भी जाननेवाला, कभी भी, किसी भी पदार्थको अपनी गैरमौजदगीसे जान ले, यह बात होने योग्य नहीं है । पहिले अपनी मौजूदगी होनी चाहिये, और किसी भी पदार्थके ग्रहण, त्याग आदि अथवा उदासीन ज्ञान होनेमें अपनी मौजूदगी ही कारण है। दूसरे पदार्थके अंगीकार करनेमें, उसके अल्पमात्र भी ज्ञानमें, यदि पहिले अपनी मौजूदगी हो, तो ही वह ज्ञान हो सकता है। इस प्रकार सबसे पहिले रहनेवाला जो पदार्थ है वह जीव ह। उसे गौण करके अर्थात् उसके बिना ही यदि कोई कुछ भी जानना चाहे तो यह संभव नहीं है । केवल वही मुख्य हो, तो ही दूसरा कुछ जाना जा सकता है। इस प्रकार जिसमें प्रगट 'उर्वता-धर्म' है, उस पदार्थको श्रीतीर्थकर जीव कहते हैं। प्रगट जड़ पदार्थ और जीव ये दोनों जिस कारणसे परस्पर भिन्न पड़ते हैं, जीवका वह लक्षण 'बायकता' नामका गुण है । किसी भी समय ज्ञायकरहित भावसे यह जीव-पदार्थ किसीका भी अनु
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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