SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 425
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पत्र ३५६, ३५७] विविध पत्र आदि संग्रह-२६वाँ वर्ष ३३७ वेषवालेको साथमें नहीं घुमाना। दीक्षा ले ले तो तेरा कल्याण होगा', इस प्रकारके वाक्य तीर्थंकरदेव भी नहीं कहते थे । उसका हेतु एक यह भी था कि ऐसा कहना भी उसका दीक्षा लेनेका विचार होनेके पहिले ही उसको दीक्षा देना-कल्याणकारक नहीं है । जिसमें तीर्थंकरदेवने भी इस प्रकारके विचारसे प्रवृत्ति की है, उसमें हम छह छह मास दीक्षा लेनेका उपदेश जारी रखकर उसे शिष्य बनाते हैं, यह केवल शिष्यके लिये ही है, आत्मार्थके लिये नहीं । इसी तरह यदि पुस्तकको ज्ञानकी आराधनाके लिये, सब प्रकारके अपने ममत्वभावसे रहित होकर रक्खा जाय तो ही आत्मार्थ है, नहीं तो वह भी एक महान् प्रतिबंध है; यह भी विचारने योग्य है। यह क्षेत्र अपना है, और उस क्षेत्रको रक्षाके लिये चातुर्मासमें वहाँ रहनेके लिये जो विचार किया जाता है, वह क्षेत्र प्रतिबंध है। तीर्थकरदेव तो ऐसा कहते हैं कि द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे—इन चार प्रतिबंधोंसे यदि आत्मार्थ होता हो, अथवा निग्रंथ हुआ जाता हो, तो वह तीर्थकरके मार्गमें नहीं है, परन्तु संसारके ही मार्गमें है। ३५६ बम्बई, फाल्गुन सुदी ७ गुरु. १९४९ आत्माको विभावसे अवकाशयुक्त करनेके लिये और स्वभावमें अनवकाशरूपसे रहनेके लिये यदि कोई भी मुख्य उपाय हो तो वह आत्माराम जैसे ज्ञानी-पुरुषका निष्काम बुद्धिसे भक्ति-योगरूप संग ही है । उसे सफल बनानेके लिये निवृत्ति-क्षेत्रमें उस प्रकारका संयोग मिलना, यह किसी महान् पुण्यका योग है, और उस प्रकारका पुण्य-योग प्रायः इस जगत्में अनेक अंतरायोंसे युक्त दिखाई देता है। इसलिये हम समीपमें ही हैं ऐसा बारम्बार याद करके जिसमें इस संसारकी उदासीनता कही हो, उसे हालमें बाँचो और उसका विचार करो । आत्मा केवल आत्मरूपसे ही रहे ऐसा चितवन रखना, यही लक्ष है और शास्त्रका परमार्थरूप है। _इस आत्माको पूर्वमें अनंतकाल व्यतीत करनेपर भी नहीं जाना, इसपरसे ऐसा मालूम होता है कि उसके जाननेका कार्य सबसे कठिन है; अथवा जाननेका तथारूप योग मिलना परम दुर्लभ है । जीव अनंतकालसे ऐसा ही समझा करता है कि मैं अमुकको जानता हूँ, अमुकको नहीं जानता, परन्तु ऐसा नहीं है। ऐसा होनेपर भी जिस रूपसे वह स्वयं है उस रूपका तो निरन्तर ही विस्मरण चला आता है-यह अधिकाधिक प्रकारसे विचार करने योग्य है, और उसका उपाय भी बहुत प्रकारसे विचार करने योग्य है। ३५७ बम्बई, फाल्गुन सुदी १४, १९४९ जिस कालमें परमार्थ-धर्मकी प्राप्तिके कारण, प्राप्त होनेमें अत्यंत दुःषम हों, उस कालको तीर्थकरदेवने दुःषम काल कहा है और इस कालमें यह बात स्पष्ट दिखाई देती है। सुगमसे सुगम ऐसा जो कल्याणका उपाय है, वह भी जीवको इस कालमें प्राप्त होना अत्यंत ही कठिन है । मुमुक्षुता, सरलता,
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy