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पत्र ३५४, ३५५]
विविध पत्र आदि संग्रह-२६वाँ वर्ष
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करते हैं, परन्तु इस दुःषम कालमें तो उसकी प्राप्ति परम दुःषम देखते हैं, और इससे ज्ञानी पुरुषके आश्रयमें जिसकी बुद्धि स्थिर है, ऐसे मुमुक्षुजनमें सत्संगपूर्वक भक्तिभावसे रहनेकी प्राप्तिको महाभाग्यरूप मानते हैं। फिर भी हालमें तो उससे विपर्यय ही प्रारब्धोदय रहता है। हमारा सत्संगका लक्ष आत्मामें ही रहता है, फिर भी उदयाधीन स्थिति है; और वह हालमें इस प्रकारके परिणामसे रहती है कि तुम मुमुक्षुजनोंके पत्रकी पहुँचमात्र भी विलंबसे दी जाती है । परन्तु किसी भी स्थितिमें हमारे अपराध-योग्य परिणाम नहीं हैं।
३५४ बम्बई, माघ वदी ७ बुध. १९४९ यदि कोई मनुष्य हमारे विषयमें कुछ कहे तो उसे जहाँतक बने गंभीर मनसे सुन रखना, इतना ही मुख्य कार्य है । वह बात ठीक है या नहीं, यह जाननेके पहिले कोई हर्ष-विषाद जैसा नहीं होता।
मेरी चित्त-वृत्तिके विषयमें जो कभी कभी लिखा जाता है, उसका अर्थ परमार्थके ऊपर लेना चाहिये; और इस लिखनेका अर्थ व्यवहारमें कुछ मिथ्या परिणामवाला दिखाना योग्य नहीं है ।
पड़े हुए संस्कारोंका मिटना दुर्लभ होता है । कुछ कल्याणका कार्य हो अथवा चितवन हो, यही साधनका मुख्य कारण है, बाकी ऐसा कोई भी विषय नहीं कि जिसके पीछे उपाधि-तापसे दीनतापूर्वक तपना योग्य हो, अथवा इस प्रकारका कोई भय रखना योग्य नहीं कि जो अपनेको केवल लोक-संज्ञासे ही रहता हो।
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बम्बई, माघ वदी ११ रवि. १९४९
यहाँ प्रवृत्ति-उदयसे समाधि है।
प्रभावके विषयमें जो आपके विचार रहते हैं वे करुणाभावके कारण रहा करते हैं, ऐसा हम मानते हैं । कोई भी जीव परमार्थके प्रति केवल एक अंशसे भी प्राप्त होनेके कारणको प्राप्त हो, ऐसा निष्कारण करुणाशील ऋषभदेव आदि तीर्थंकरोंने भी किया है। क्योंकि सत्पुरुषोंके सम्प्रदायकी ऐसी ही सनातन करुणावस्था होती है कि समयमात्रके अनवकाशसे समस्त लोक आत्मावस्थाके प्रति सन्मुख हो, आत्मस्वरूपके प्रति सन्मुख हो, आत्मसमाधिके प्रति सन्मुख हो; और अन्य अवस्थाके प्रति सन्मुख न हो, अन्य स्वरूपके प्रति सन्मुख न हो, अन्य आधिके प्रति सन्मुख न हो; जिस ज्ञानसे स्वात्मस्थ परिणाम होता है, वह ज्ञान सब जीवोंको प्रगट हो, अनवकाशरूपसे सब जीव उस ज्ञानके प्रति रुचिसम्पन्न हों-इसी प्रकारका जिसका करुणाशील स्वभाव है, वह सनातन पुरुषोंका सम्प्रदाय है।
आपके अंतःकरणमें इसी प्रकारकी करुणा-वृत्तिसे प्रभावके विषयमें बारम्बार विचार आया करता है। और आपके विचारका एक अंश भी फल प्राप्त हो, अथवा उस फलके. प्राप्त होनेका एक अंशमात्र भी कारण उत्पन्न हो, तो इस पंचम कालमें तीर्थकरका मार्ग बहुत अंशोंसे प्रगट होनेके बराबर है। परन्तु