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पत्र ३४९, ३५०] विविध पत्र आदि संग्रह-२६वाँ वर्ष
शम, संवेग आदि गुणोंके उत्पन्न होनेपर अथवा वैराग्यविशेष, निष्पक्षता होनेपर, कषाय आदिके कृश होनेपर अथवा किसी भी प्रज्ञाविशेषसे समझनेकी योग्यता होनेपर, जो सद्गुरुके पाससे समझने योग्य अध्यात्म ग्रंथोंको-जो वहाँतक प्रायः करके शस्त्र जैसे हैं-अपनी कल्पनासे जैसे तैसे पढ़कर निश्चय करके, उस प्रकारके अंतर्भेदके उत्पन्न हुए बिना ही अथवा दशाके बदले बिना ही, विभावके दूर हुए बिना ही, अपने आपमें ज्ञानकी कल्पना कर लेता है, तथा क्रिया और शुद्ध व्यवहाररहित होकर प्रवृत्ति करता है-वह शुष्क-अध्यात्मीका तीसरा भेद है। जीवको जगह जगह इस प्रकारका संयोग मिलता आया है, अथवा ज्ञानरहित गुरु या परिग्रह आदिके इच्छुक गुरु, केवल अपने मान पूजा आदिकी कामनासे फिरनेवाले जीवोंको, अनेक प्रकारसे कुमार्गपर चढ़ा देते हैं; और प्रायः करके कोई ही ऐसी जगह होती है, जहाँ ऐसा नहीं होता । इससे ऐसा मालूम होता है कि कालकी दुःषमता है।
यह जो दुःषमता लिखी है वह कुछ जीवको पुरुषार्थरहित करनेके लिये नहीं लिखी, परन्तु पुरुषार्थकी जागृतिके लिये ही लिखी है।
अनुकूल संयोगमें तो जीवको कुछ कम जागृति हो तो भी कदाचित् हानि न हो, परन्तु जहाँ इस प्रकारका प्रतिकूल योग रहता हो वहाँ मुमुक्षुको अवश्य ही अधिक जागृत रहना चाहिये, जिससे तथारूप पराभव न हो, और वह उस प्रकारके किसी प्रवाहमें प्रवाहित न हो जाय ।।
यद्यपि वर्तमान कालको दुःषम काल कहा है, फिर भी यह ऐसा भी है कि इसमें अनंत भवको छेदकर केवल एक भव बाकी रखनेवाला एकावतारीपना भी प्राप्त हो सकता है । इसलिये विचारवान जीवको इस लक्षको रखकर, ऊपर कहे हुए प्रवाहोंमें न पड़ते हुए, यथाशक्ति वैराग्य आदिका अवश्य ही आराधन करके, सद्गुरुका योग प्राप्त करके, कषाय आदि दोषको नष्ट करनेवाले और अज्ञानसे रहित होनेके सत्य मार्गको प्राप्त करना चाहिये । मुमुक्षु जीवमें जो शम आदि गुण कहे हैं, वे गुण अवश्य संभव होते हैं; अथवा उन गुणोंके बिना मुमुक्षुता ही नहीं कही जा सकती।।
नित्य ही उस प्रकारका परिचय रखते हुए, उस उस बातको श्रवण करते हुए, विचारते हुए, फिर फिरसे पुरुषार्थ करते हुए वह मुमुक्षुता उत्पन्न होती है । उस मुमुक्षुताके उत्पन्न होनेपर जीवको परमार्थ-मार्ग अवश्य समझमें आता है।
३४९ बम्बई, कार्तिक वदी ९, १९४९ प्रमादके कम होनेका उपयोग, इस जीवको मार्गके विचारमें स्थिति कराता है, और विचारमार्गमें स्थिति कराता है। इस बातको फिर फिरसे विचार करके उस प्रयत्नको वहाँ किसी भी तरह दूर करना योग्य है । यह बात भूलने योग्य नहीं है।
३५० बम्बई, कार्तिक वदी १२ बुध. १९४९ __ "पुनर्जन्म है-अवश्य है, इसके लिये मैं अनुभवसे हाँ कहनेमें अचल हूँ," यह वाक्य पूर्वभवके किसी संयोगके स्मरण होते समय सिद्ध होनेसे लिखा है । जिसको पुनर्जन्म आदि भावरूप किया है उस पदार्थको किसी प्रकारसे जानकर ही यह वाक्य लिखा गया है ।