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________________ ३२६ भीमद् राजचन्द्र [पत्र ३४२ ४. उस प्रकारकी सुदृढ़ता हो जानेके पश्चात् चन्द्रको दाहिनी आँखमें और सूर्यको बॉई आँख में स्थापित करना। ५. इस भावनाको तबतक सुदृढ़ बनाना, जबतक यह भावना उस पदार्थके आकार आदिके दर्शनको उत्पन्न न कर दे । ( यह जो दर्शन कहा है, उसे भास्यमान-दर्शन समझना ।) ६. इन दोनों प्रकारोंकी उल्टी-सीधी भावनाओंके सिद्ध हो जानेपर भृकुटीके मध्य भागमें उन दोनोंका चितवन करना। ७. पहिले इस चितवनको आँख खोलकर करना । ८. उस चितवनके अनेक तरहसे दृढ़ हो जानेके बाद आँख बंद रखकर, उस पदार्थके दर्शनकी भावना करनी। ९. उस भावनासे दर्शनके सुदृढ़ हो जानेके पश्चात् हृदयमें एक अष्टदल कमलका चितवन करके, उन दोनों पदार्थीको अनुक्रमसे स्थापित करना ।। १०. हृदयमें इस प्रकारका एक अष्टदल कमल माना गया है, परन्तु वह ऐसा माना गया है कि वह विमुखरूपसे रहता है, इसलिये उसे सन्मुखरूपसे अर्थात् सीधी तरहसे चितवन करना । ११. उस अष्टदल कमलमें पहिले चन्द्रके तेजको स्थापित करना, फिर सूर्यके तेजको स्थापित करना, और फिर अखंड दिव्याकार अग्निकी ज्योति स्थापित करना । १२. उस भावके दृढ़ हो जानेके बाद, उसमें जिनका ज्ञान, दर्शन और आत्मचारित्र पूर्ण है ऐसे श्रीवीतरागदेवकी प्रतिमाका महातेजोमय स्वरूपसे चितवन करना । १३. उस परम प्रतिमाका न बाल, न युवा और न वृद्ध, इस प्रकार दिव्यस्वरूपसे चितवन करना। १४. ऐसी भावना करना कि संपूर्ण ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होनेसे श्रीवीतरागदेव यहीं स्वरूपसमाधिमें विद्यमान हैं। १५. ऐसी भावना करना कि स्वरूप-समाधिमें स्थित वीतराग आत्माके स्वरूपमें ही तदाकार हैं। १६. ऐसी भावना करना कि उनके मूर्धस्थानसे उस समय ॐकारकी धनि निकल रही है । १७. ऐसी भावना करना कि उन भावनाओंके दृढ़ हो जानेपर वह ॐकार सब प्रकारके वक्तव्य-ज्ञानका उपदेश कर रहा है।। १८. जिस प्रकारके सम्यक्मार्गसे वीतरागदेवने वीतराग-निष्पन्नताको प्राप्त किया है, ऐसा ज्ञान उस उपदेशका रहस्य है, ऐसा चितवन करते करते वह ज्ञान क्या है, ऐसी भावना करना । १९. उस भावनाके हद हो जानेके पश्चात् उन्होंने जो द्रव्य आदि पदार्थ कहे हैं, उनकी भावना करके आत्माका निज स्वरूपमें चितवन करना-सर्वांगसे चितवन करना। (२) ध्यानके अनेकनेक भेद हैं । इन सबमें श्रेष्ठ ध्यान तो वही कहा जाता है जिसमें आत्मा मुख्यभावसे रहती है और प्रायः करके आत्म-ज्ञानकी प्राप्ति के बिना यह आत्म-ध्यानकी प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार आत्मज्ञान यथार्थ बोधकी प्राप्तिके सिवाय उत्पन्न नहीं होता। इस यथार्थ बोधकी प्राति प्रायः करके क्रम क्रमसे बहुतसे जीवोंको होती है, और उसका मुख्य मार्ग बोधस्वरूप ऐसे ज्ञानी पुरुषका आश्रय अथवा संग, और उसके प्रति बहुमान-प्रेम-है। ज्ञानी पुरुषका उस उस प्रकारका संग
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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